साभार -ibnkhabar.com
नई दिल्ली। उड़ीसा में जबरदस्त चुनाव प्रचार के बाद इंदिरा गांधी 30 अक्टूबर 1984 की शाम दिल्ली पहुंची थीं। आमतौर पर जब वो दिल्ली में रहती थीं तो उनके घर 1 सफदरजंग रोड पर जनता दरबार लगाया जाता था। लेकिन ये भी एक अघोषित नियम था कि अगर इंदिरा दूसरे शहर के दौरे से देर शाम घर पहुंचेंगी तो अगले दिन जनता दरबार नहीं होगा। 30 तारीख की शाम को भी इंदिरा से कहा गया कि वो अगले दिन सुबह के कार्यक्रम रद्द कर दें। लेकिन इंदिरा ने मना कर दिया। वो आइरिश फिल्म डायरेक्टर पीटर उस्तीनोव को मुलाकात का वक्त दे चुकी थीं।
एसीपी दिनेश चंद्र भट्ट बताते हैं कि जैसे एक नॉर्मल तरीका होता है। सुबह उठकर आप जनता से मिलते हैं तो उस दिन एक बिजी शिड्यूल था। उनके इंटरव्यू के लिए बाहर से एक टीम आई हुई थी। पीटर उस्तीनोव आए। उन लोगों ने अपना सर्वे किया। ये देखा कि खुली जगह पर इंटरव्यू करना चाहिए। वहां दीवाली के पटाखे पड़े हुए थे। उसको साफ-वाफ करवा कर वैसा इंतजाम करवाया गया तो उसमें कुछ वक्त लग रहा था।
दरअसल पीटर इंदिरा गांधी पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बना रहे थे। इस बीच सुबह के आठ बजे इंदिरा गांधी के निजी सचिव आर के धवन 1 सफदरजंग रोड पहुंच चुके थे। धवन जब इंदिरा गांधी के कमरे में गए तो वो अपना मेकअप करा रही थीं। इंदिरा ने पलटकर उन्हें देखा। दीवाली के पटाखों को लेकर थोड़ी नाराजगी भी दिखाई और फिर अपना मेकअप पूरा कराने में लग गईं।
अब तक घड़ी ने 9 बजा दिए थे। लॉन भी साफ हो चुका था और इंटरव्यू के लिए सारी तैयारियां भी पूरी थीं। चंद मिनटों में ही इंदिरा एक अकबर रोड की तरफ चल पड़ीं। यहीं पर पेंट्री के पास मौजूद था हेड कॉन्सटेबल नारायण सिंह। नारायण सिंह की ड्यूटी आइसोलेशन कैडर में होती थी। साढ़े सात से लेकर 8.45 तक पोर्च में ड्यूटी करने के बाद वो कुछ देर पहले ही पेंट्री के पास आकर खड़ा हुआ था। इंदिरा को सामने से आते देख उसने अपनी घड़ी देखी। वक्त हुआ था 9 बजकर 05 मिनट। आर के धवन भी उनके पीछे-पीछे चल रहे थे।
दूरी करीब तीन से चार फीट रही होगी। तभी वहां से एक वेटर गुजरा। उसके हाथ में एक कप और प्लेट थी। वेटर को देखकर इंदिरा थोड़ा ठिठकीं। पूछा कि ये कहां लेकर जा रहे हो। उसने जवाब दिया इंटरव्यू के दौरान आइरिश डायरेक्टर एक-टी सेट टेबल पर रखना चाहते हैं। इंदिरा ने उस वेटर को तुरंत कोई दूसरा और अच्छा टी-सेट लेकर आने को कहा। ये कहते हुए ही इंदिरा आगे की ओर बढ़ चलीं। ड्यूटी पर तैनात हेड कॉन्सटेबल नारायण सिंह छाता लेकर उनके साथ हो लिया।
तेज कदमों से चलते हुए इंदिरा उस गेट से करीब 11 फीट दूर पहुंच गई थीं जो एक सफदरजंग रोड को एक अकबर रोड से जोड़ता है। नारायण सिंह ने देखा कि गेट के पास सब इंस्पेक्टर बेअंत सिंह तैनात था। ठीक बगल में बने संतरी बूथ में कॉन्सटेबल सतवंत सिंह अपनी स्टेनगन के साथ मुस्तैद खड़ा था।
आगे बढ़ते हुए इंदिरा गांधी संतरी बूथ के पास पहुंचीं। बेअंत और सतवंत को हाथ जोड़ते हुए इंदिरा ने खुद कहा-नमस्ते। उन्होंने क्या जवाब दिया ये शायद किसी को नहीं पता लेकिन बेअंत सिंह ने अचानक अपनी दाईं तरफ से .38 बोर की सरकारी रिवॉल्वर निकाली और इंदिरा गांधी पर एक गोली दाग दी। आसपास के लोग भौचक्के रह गए। सेकेंड के अंतर में बेअंत सिंह ने दो और गोलियां इंदिरा के पेट में उतार दीं। तीन गोलियों ने इंदिरा गांधी को जमीन पर झुका दिया। उनके मुंह से एक ही बात निकली-ये क्या कर रहे हो। इस बात का भी बेअंत ने क्या जवाब दिया ये शायद किसी को नहीं पता।
लेकिन तभी संतरी बूथ पर खड़े सतवंत की स्टेनगन भी इंदिरा गांधी की तरफ घूम गई। जमीन पर नीचे गिरती हुईं इंदिरा गांधी पर कॉन्सटेबल सतवंत सिंह ने एक के बाद एक गोलियां दागनी शुरु कीं। लगभग हर सेकेंड के साथ एक गोली। एक मिनट से कम वक्त में सतवंत ने अपनी स्टेन गन की पूरी मैगजीन इंदिरा गांधी पर खाली कर दी। स्टेनगन की तीस गोलियों ने इंदिरा के शरीर को भूनकर रख दिया।
आर के धवन बताते हैं कि उस वक्त भी मैं उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहा था। इंदिरा जी भी नीचे देख रही थीं। मैं भी नीचे देखकर चल रहा था। बात कर रहे थे। जैसे ही सिर उठाया तो देखा बेअंत सिंह जो गेट पर था उसने अपनी रिवॉल्वर से गोलियां चलानी शुरू कर दीं। गोलियां चलनी शुरू हुईं तो इंदिरा जी उसी वक्त जमीन पर गिर गईं। तभी सतवंत सिंह ने गोलियों की बौझार शुरू कर दी। जब वो दृश्य मेरे सामने आता है तो दिमाग पागल हो जाता है।
पीएम के लिए ऐंबुलेंस तक नहीं मिली
हेड कान्सटेबल नारायण सिंह हो या आर के धवन। सब हक्के-बक्के थे। वक्त जैसे थम गया था। दिमाग में खून जमने जैसी हालत थी। तभी बेअंत सिंह ने आर के धवन की ओर देखकर कहा- हमें जो करना था वो हमने कर लिया। अब तुम जो करना चाहो, वो करो। वहां मौजूद सभी लोग एक झटके के साथ होश में आए। आर के धवन के मन में एक ही बात आई। इंदिरा को जल्द से जल्द हॉस्पिटल पहुंचाया जाए। वो जोर से चीखे-एंबुलेंस।
उनकी बात का किसी ने जवाब नहीं दिया। पास में खड़े एसीपी दिनेश चंद्र भट्ट ने तुरंत बेअंत और सतवंत को काबू में ले लिया। उनके हथियार जमीन पर गिर गए। उन्हें तुरंत पास के कमरे में ले जाया गया। एसीपी दिनेश चंद्र भट्ट कहते हैं कि उस वक्त जो हो सकता था किया गया लेकिन चूंकि वो इतना अचानक और अनपेक्षित था कि उसको याद करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है।
अब तक छाता लेकर भौचक्क खड़ा रहा हेड कॉन्सटेबल नारायण सिंह भी हरकत में आया। उसने छाता फेंका और डॉक्टर को बुलाने के लिए दौड़ पड़ा। एक अकबर रोड के लॉन में इंदिरा का इंतजार करते हुए आइरिश डेलिगेशन को फायरिंग की आवाज अजीब सी लगी। फिर उन्हें लगा कि शायद एक बार फिर दीवाली के पटाखे फोड़े गए हैं। डायरेक्टर पीटर उस्तीनोव वहीं पर इंदिरा का इंतजार करते रहे।
इधर आर के धवन ने इंदिरा को उठाने की कोशिश की। तभी बुरी तरह घबराई हुईं सोनिया गांधी भी वहां पहुंच गईं। तब तक कई दूसरे सुरक्षाकर्मी भी उस गेट के पास पहुंच चुके थे। धवन और सोनिया ने मिलकर इंदिरा को उठाया। आर के धवन बताते हैं कि उस वक्त तो यही दिमाग काम किया कि उनको एकदम से हॉस्पिटल ले जाया जाए। मैंने उस वक्त एक एंबुलेंस जो वहां रहती थी उसे बुलाया लेकिन एंबुलेंस नहीं आई। पता चला उसका ड्राइवर चाय पीने गया हुआ था।
एंबुलेंस के पहुंचने की कोई संभावना नहीं थी इसलिए सोनिया-आर के धवन और बाकी सुरक्षाकर्मी इंदिरा गांधी को लेकर एक सफेद एंबेसेडर कार तक पहुंच गए। तय हुआ कि कार से ही इंदिरा को एम्स लेकर जाया जाए। इंदिरा गांधी का सिर सोनिया ने अपनी गोद में रखा। उनके शरीर से लगातार खून बह रहा था।
इस बीच उस कमरे से एक बार फिर फायरिंग की आवाज आई जिसमें सुरक्षाकर्मी बेअंत और सतवंत को लेकर गए थे। यहां बेअंत ने एक बार फिर हमला करने की कोशिश की थी। उसने अपनी पगड़ी में छिपाए चाकू को बाहर निकाल लिया। बेअंत और सतवंत दोनों ने इस कमरे से भागने की कोशिश की लेकिन जवाबी कार्रवाई में सुरक्षाकर्मियों ने बेअंत को वहीं ढेर कर दिया। सतवंत को भी 12 गोलियां लगीं लेकिन उसकी सांसें चल रही थीं।
गोलियों का शोर थमा तो एक और शोर शुरू हुआ। उस सफेद एंबेसेडर के स्टार्ट होने की आवाज जिसमें इंदिरा गांधी को लिटाया गया था। सोनिया एक टक इंदिरा की तरफ देख रही थीं। दूर खड़े आयरिश फिल्म मेकर पीटर उस्तीनोव को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हुआ। सुरक्षाकर्मी तेजी के साथ एक तरफ से दूसरी तरफ भाग रहे थे। लॉन में हड़कंप मचा हुआ था। पीटर उस्तीनोव ने एक इंटरव्यू में कहा है-उस वक्त एक अकबर रोड की चिड़ियां और गिलहरियां भी अजीब बर्ताव कर रही थीं। सात मिनट के अंतर पर दो बार फायरिंग की जोरदार आवाज के बावजूद उन पर कोई असर नहीं था। उन परिंदों को जैसे पता था कि गोलियां उन्हें निशाना बनाकर नहीं मारी गईं।
बीबीसी ने सबसे पहले ब्रेक की खबर
एंबेसेडर तेजी के साथ एक अकबर रोड से निकली। आगे बैठे आर के धवन, दिनेश भट्ट और पीछे सोनिया ने इंदिरा का सिर अपनी गोद में रखा हुआ था। ये वो वक्त था जब गांधी परिवार ही नहीं एक और शख्स की जिंदगी बदलने जा रही थी। बीबीसी के संवाददाता सतीश जैकब के एक दोस्त की नजर सोनिया गांधी पर पड़ गई। उस दोस्त ने तुरंत जैकब को फोन मिलाया। सतीश जैकब कहते हैं-उसने कहा कि एक सफदरजंग रोड के सामने से निकला तो इंदिरा गांधी के घर में से एक कार बाहर आई और मैं पक्का तो नहीं हूं लेकिन उसमें सोनिया गांधी बैठी हुई थीं और पता करो...क्या हुआ।
एक मंझे हुए पत्रकार को इशारा ही काफी था। कुछ तो गड़बड़ हुई है। जैकब ने तुरंत राजीव गांधी के निजी सचिव विन्सेट जॉर्ज को फोन मिलाया। लेकिन मुश्किल ये कि आखिर जॉर्ज से खबर कैसे पता करें। सतीश जैकब कहते हैं कि जॉर्ज को मैंने फोन किया तो सोचा कि ऐसे सवाल करूं कि वो कुछ छुपा न सके। तो मैंने जॉर्ज से इतना कहा कि ज्यादा सीरियस तो नहीं है मामला। तो उसने कहा कि सीरियस तो नहीं है लेकिन एम्स ले गए हैं। मैंने कहा चलो एम्स चलकर देखते हैं।
इस बीच इंदिरा गांधी को लेकर एंबेसेडर कार तेजी से एम्स की तरफ भागती जा रही थी। वैसे तो एम्स में इंदिरा का पूरा रिकॉर्ड, उनके ब्लड ग्रुप का ब्योरा, सभी कुछ मौजूद था लेकिन अस्पताल पहुंचाने की हड़बड़ी में किसी को याद ही नहीं रहा कि एम्स फोन करके ये बता दिया जाए कि इंदिरा को गोली मारी गई है। घड़ी वक्त दिखा रही थी 9 बजकर 32 मिनट। एम्स पहुंचते ही इंदिरा गांधी को वीआईपी सेक्शन लेकर जाया गया लेकिन वो उस दिन बंद था। धवन उन्हें इमरजेंसी की तरफ लेकर भागे वहां कुछ नौजवान डॉक्टर मौजूद थे। वो मरीज को देखते ही हड़बड़ा गए। तभी किसी का दिमाग काम किया। उसने तुरंत अपने सीनियर कार्डियोलॉडिस्ट को खबर दी। वो सीनियर कार्डियोलॉजिस्ट कोई और नहीं डॉक्टर वेणुगोपाल थे।
डॉक्टर वेणुगोपाल बताते हैं कि हमारे सहयोगी डॉक्टर ने बताया कि आप नीचे आ जाइए इंदिरा गांधी को लेकर आए हैं। उनको देखना है। हम उसी ड्रेस में नीचे गए थे कैजुएलिटी में। जब गए थे तो हमने देखा वो एक ट्रॉली पर लेटी हुई हैं और काफी खून बह रहा।
इस वक्त तक बीसीसी संवाददाता सतीश जैकब भी एम्स पहुंच गए थे। एम्स में तूफान से पहले वाला सन्नाटा था। इंदिरा के शरीर से लगातार खून बह रहा था। इमरजेंसी में तब तक दर्जन भर सीनियर डॉक्टर जुट चुके थे। पहली कोशिश ये कि लगातार बहते खून को रोका जाए। इंदिरा के शरीर का तापमान भी तेजी से नीचे गिर रहा था। डॉक्टरों ने तुरंत उनके फेफड़ों में ऑक्सीजन पहुंचाने वाली मशीन लगाई। ईसीजी मशीन दिखा रही थी उनका दिल मंद गति से धड़क रहा था। इसके बाद डॉक्टरों ने उन्हें हार्ट मशीन भी लगा दी हालांकि उन्हें इंदिरा की पल्स नहीं मिल रही थी। धीरे-धीरे इंदिरा की पुतलियां फैलती जा रही थीं। साफ था कि दिमाग में खून पहुंचना लगभग रुक गया है।
डॉक्टरों की टीम ने उन्हें आठवें फ्लोर के ऑपरेशन थिएटर में ले जाने का फैसला किया। हालांकि जिंदगी का कोई निशान उनके शरीर में नजर नहीं आ रहा था लेकिन फिर भी 12 डॉक्टरों की टीम चमत्कार की आस में उन्हें बचाने की कोशिश में जुट गई। इधर बीबीसी संवाददाता सतीश जैकब भी तेजी के साथ एम्स पहुंचे। उन्हें ये तो मालूम था कि एक अकबर रोड पर कुछ अनहोनी हुई है लेकिन वो अनहोनी क्या है ये पता करना उनके लिए बड़ी चुनौती थी।
सतीश जैकब बताते हैं कि मैं गाड़ी पार्क करके लिफ्ट से उधर गया। जैसे ही लिफ्ट से बाहर निकला तो देखा एक बुजुर्ग से डॉक्टर मुंह से कपड़ा हटा रहे थे। ऐसा लगता था कि मानो ओटी से आए हों तो मैंने फिर वही किया। मैंने ये नहीं पूछा कि आप किसका क्या कर रहे हो। मैंने पूछा-सब ठीक तो है ना। जान तो खतरे में नहीं है ना। उन्होंने मुझे बड़े गुस्से में देखा। कहा कैसी बात करते हो। अरे सारा जिस्म छलनी हो चुका है तो मैंने उनसे कुछ नहीं कहा। वहीं आईसीयू के बाहर आर के धवन खड़े थे। चेहरे से ऐसा लग रहा था कि चिंता में हैं। वहां आर के धवन से मैंने इतना कहा कि धवन साहब, ये तो बहुत बुरा हुआ। कैसे हुआ ये तो उन्होंने कहा कि वो अपने घर से निकल पैदल आ रही थीं। वो पीछे-पीछे चल रहे थे अचानक गोलियों की आवाज आई।
बीबीसी संवाददाता सतीश जैकब के हाथ में अब पुख्ता खबर थी- देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को गोली मारी गई है। इस खबर के साथ वो तुरंत एम्स से बाहर निकल गए। इधर आठवीं मंजिल के ऑपरेशन थिएटर में वेणुगोपाल और बाकी डॉक्टरों ने देखा कि गोलियों ने इंदिरा के लीवर को फाड़ दिया है। छोटी आंत, बड़ी आंत और एक फेफड़े को भी गोलियों ने बुरी तरह नुकसान पहुंचाया था। उनकी रीढ़ की हड्डी में भी गोलियां धंसी हुई थीं। जो एक चीज पूरी तरह सुरक्षित थी वो था इंदिरा का दिल।
डॉक्टर वेणुगोपाल कहते हैं कि पहले तो एक ही मकसद था। उनको बचाने के लिए जहां से खून बाहर आ रहा है उनको सारे को कंट्रोल करना था। वो 4-5 घंटे लगे उनको कंट्रोल करने में। इसी टाइम पर उनका हार्ट फंक्शन, ब्रेन फंक्शन ठीक करने के लिए मशीन पर लगाया। तापमान भी कम कर दिया उनको बचाने के लिए।
लेकिन इंदिरा का शरीर उनका साथ छोड़ रहा था। डॉक्टर बड़ी बारीकी के साथ उनके शरीर से सात गोलियां निकाल चुके थे वक्त निकलता जा रहा था। डॉक्टरों के सामने एक मुश्किल इंदिरा का 0-नेगेटिव ब्लड ग्रुप भी था। भारत में सौ लोगों में से सिर्फ एक का 0-नेगेटिव ब्लड ग्रुप होता है। इंदिरा को बचाने के संघर्ष में डॉक्टरों ने उन्हें 88 बोतल ओ-नेगेटिव खून चढ़ाया।
डॉक्टर वेणुगोपाल कहते हैं कि जितना कुछ हो सकता है किया। ब्लड बैंक ऑफीसर ने काफी कोशिश की। 80 से ज्यादा बोतल लाए वो। ओ नेगेटिव और ए नेगेटिव मिलाकर दिए गए। बहुत कोशिश की ताकि जितनी ब्लीडिंग हुई उसको रिप्लेस किया जा सके।लेकिन ये 88 यूनिट खून भी बहुत काम ना आया। एक तरह से इंदिरा सिर्फ मशीन के भरोसे जिंदा थीं। ये वो वक्त था जब भगवान का दर्जा पाने वाले डॉक्टरों ने भी हथियार डाल दिए। डॉक्टर वेणुगोपाल कहते हैं कि ये सब करने के बाद जब ब्लीडिंग बंद कर दी गई। तो फिर उनका हार्ट फंक्शन चालू करने की कोशिश की। जब वो बहुत देर के बाद भी नहीं हुआ तो फिर उसी वक्त हमने थोड़ी देर मशीन पर रखकर फिर फैसला करना पड़ा।
फैसला बहुत मुश्किल था लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था। ऑपरेशन थिएटर के बाहर कांग्रेस के दिग्गजों की भीड़ लगी हुई थी। वो मान चुके थे कि अब उनका बचना मुमकिन नहीं। उधर ऑपरेशन थिएटर के बगल वाले कमरे में एक और जद्दोजेहद चल रही थी। इंदिरा की मौत के बाद कौन बनेगा देश का प्रधानमंत्री। राजीव गांधी पश्चिम बंगाल में अपना दौरा रद्द कर दिल्ली पहुंच चुके थे।
सभी की राय थी कि राजीव गांधी को ही देश की सत्ता सौंपी जाए लेकिन सोनिया गांधी अड़ी हुई थीं कि राजीव ये बात कतई मंजूर ना करें। आखिरकार राजीव ने सोनिया को कहा कि मैं प्रधानमंत्री बनूं या ना बनूं दोनों ही सूरत में मार दिया जाऊंगा। राजीव के इस जवाब के बाद सोनिया ने कुछ नहीं कहा। आखिरकार दोपहर 2 बजकर 23 मिनट पर आधिकारिक तौर ये ऐलान कर दिया गया कि इंदिरा गांधी की मौत हो चुकी है। ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर इंदिरा का पोस्टमॉर्टम करने के लिए फोरेंसिक विभाग से टी डी डोगरा को भी बुला चुके थे।
डॉक्टर टी डी डोगरा कहते हैं कि उस वक्त दोपहर के 2.10 हुए थे। मुझे बुलाकर बताया गया कि इंदिरा गांधी की मौत हो चुकी है। वहां इतनी ज्यादा भीड़ थी कि मुझे लगा लोग ऑपरेशन थिएटर का शीशा तोड़कर भीतर घुस आएंगे। हड़बड़ी में मैं अपने दस्ताने पहनने भी भूल गया था। मेरे सामने चुनौती थी कि उनका बुरी तरह जख्मी शरीर पोस्टमॉर्टम के बाद और ना बिगड़े। उनके शरीर पर गोलियों के 30 निशान थे और कुल 31 गोलियां इंदिरा के शरीर से निकाली गईं।
इस वक्त तक एम्स के बाहर भी हजारों लोगों की भीड़ उमड़ आई थी। पुलिस वालों के लिए उन्हें संभालना मुश्किल हो रहा था। हर तरफ इंदिरा गांधी के नारे गूंज रहे थे। हालत ये हो गई कि इंदिरा समर्थकों को संभालने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज तक करना पड़ा। लोग इंदिरा की मौत की खबर से बुरी तरह सन्न थे और उतना ही ज्यादा फूट रहा था उनका गुस्सा। हालत ये थी कि विएना के दौरे से लौटकर सीधे एम्स पहुंचे राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह की कार पर भी पथराव कर दिया गया।
ये बहुत बड़े तूफान की आहट थी। लोग रो रहे थे। बिलख रहे थे। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि इंदिरा को भी कोई ताकत हरा सकती है। यही वो भीड़ थी जो रोते-रोते जब थक गई तो उसकी जगह गुस्से ने ली। ये गुस्सा आगे क्या करने वाला। इस बात का किसी को कोई एहसास नहीं था।
बीबीसी संवाददाता सतीश जैकब तेजी के साथ अपने दफ्तर वापस लौट रहे थे। दिल में तूफान कि इतनी बड़ी खबर है। उनका मन कर रहा था कि जितनी जल्दी हो सके ऑफिस पहुंचें। जैकब ने बताया कि हमें जो कोई भी खबर देनी होती थी वो हम टेलिफोन पर देते थे। वो हमारा रिकॉर्ड होता था तो खबर हमारी आवाज में जाती थी। एक प्रोब्लम ये थी कि उस वक्त एसटीडी वगैरह नहीं थी। इंटरनेशनल कॉल बुक करानी पड़ती थीं। उस दिन मुझे जल्दी कनेक्ट करा दिया गया। मेरे पास वक्त नहीं था टाइप करने का तो मैंने कहा कि छोटी सी खबर है। मैंने कहा-अभी थोड़ी देर पहले भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर घातक हमला हुआ है।
ये खबर बीबीसी रेडियो पर कुछ देर बाद चली। लेकिन जब चलनी शुरू हुई तो भारत ही नहीं पूरी दुनिया में हड़कंप मच गया। उस वक्त अमेरिका में आधी रात हो रही थी। जानकारी के मुताबिक राष्ट्रपति रीगन को आधी रात में इंदिरा की हत्या की खबर दी गई। अमेरिका से लेकर रूस तक में हड़कंप मच गया। इधर देश के तमाम शहरों में बड़े-बड़े अखबार हरकत में आ चुके थे। ज्यादातर पत्रकारों को उनके घर से बुला लिया गया।
अखबार की मशीनें धड़ाधड़ चलने लगीं। दैनिक जागरण, नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, आज, टाइम्स ऑफ इंडिया, स्टेट्समैन भारत का हर अखबार इंदिरा की हत्या की खबर से पट गया। शाम को छपने वाले तमाम अखबार उस दिन कई घंटा पहले छपे। हालत ये थी कि अखबार की कॉपी बाजार में पहुंचते की हाथों-हाथ बिक रही थी लेकिन शाम चार बजे तक दूरदर्शन और आकाशवाणी पर इंदिरा की हत्या की कोई खबर नहीं थी। दुनिया भर में इस खबर का डंका पीटने वाले सतीश जैकब ने खुद ये बात आकाशवाणी के एक अधिकारी से पूछी।
सतीश जैकब ने बताया- वो कहने लगे भाई मैं क्या करूं। इतनी बड़ी खबर है और जब तक कि कोई सीनियर मिनिस्टर या अधिकारी इसको अप्रूव नहीं कर देता मैं इसको ब्रॉडकास्ट नहीं कर सकता। तो मैंने कहा कि क्यों नहीं कराया अप्रूव तो उन्होंने कहा कि प्रेसिडेंट यमन में हैं। होम मिनिस्टर प्रणब मुखर्जी राजीव के साथ पश्चिम बंगाल में हैं। उनका कहना था यहां कोई भी मिनिस्टर दिल्ली में नहीं है, तो मैं क्या करूं। बीबीसी के लिए ये भारत में बहुत अहम दिन था। पूरा देश इंदिरा की हत्या की खबर बार-बार सुनने के लिए जैसे बीबीसी रेडियो से चिपक गया था। खुद पश्चिम बंगाल से दिल्ली तक के रास्ते में राजीव गांधी भी बीच-बीच में बीबीसी पर ही खबरें सुनते आ रहे थे।
सिखों पर उतरने लगा इंदिरा की हत्या का गुस्सा
सुबह से लेकर अब तक बहुत कुछ बदल चुका था। मैंने देखा कि एम्स में एक अजीब सा तनाव बढ़ता जा रहा था। सैकड़ों की तादाद में वहां सिख भी आए थे। पहले इंदिरा गांधी अमर रहे के नारे भी लगा रहे थे लेकिन धीरे-धीरे वो एम्स से हटने लगे। जैसे-जैसे लोगों को ये पता चला कि इंदिरा की हत्या उनके ही दो सिख गार्डों ने की है। नारों का अंदाज भी बदलने लगा। राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह की कार पर पथराव के बाद इन नारों की गूंज एम्स के आसपास के इलाकों में भी फैलती जा रही थी।
दोपहर ढलते-ढलते एम्स से वापस लौटते लोगों ने कुछ इलाकों में तोड़फोड़ भी शुरू कर दी थी। हॉस्पिटल के पास से गुजरती हुई बसों में से सिखों को खींच-खींच कर बाहर निकाला जाने लगा। दिल्ली में बरसों से रह रहे इन लोगों को अंदाजा भी नहीं था कि कभी उनके खिलाफ गुस्सा इस कदर फूटेगा। धीरे-धीरे बसों से सिखों को खींचकर निकालने का सिलसिला पूरी दिल्ली में फैल गया लेकिन लोगों का गुस्सा यहीं नहीं थमा। पहला हमला 5 बजकर 55 मिनट पर हुआ विनय नगर इलाके में। यहां एक सिख लड़के को बुरी तरह पीटने के बाद उसकी मोटरसाइकिल में आग लगा दी गई। इस आग में पूरी दिल्ली धधकने जा रही थी।
उस वक्त के हालात का अंदाजा लगना मुश्किल है। एक के बाद एक दुकानों के शटर गिर रहे थे। इंदिरा की मौत की घोषणा के बाद पूरे के पूरे बाजारों में सन्नाटा पसर गया। सड़कों पर चल रही गाड़ियां ना जाने कहां गायब हो गईं। ऐसा लगा जैसे कर्फ्यू लगा दिया गया हो लेकिन इस सन्नाटे के बीच सिख विरोधी नारे लगातार बढ़ते जा रहे थे। 31 अक्टूबर के सूरज ने दिन भर में बहुत कुछ देख लिया था। डूबते सूरज की लाल रोशनी भी धीरे-धीरे खत्म हो रही थी लेकिन सूरज के डूबने के बाद भी लाल रोशनी खत्म नहीं हुई। जलते हुए घरों से उठती हुई रोशनी...वो भी तो लाल ही थी।