राजनीतिक विश्लेषक और तमाम सर्वे अनुमान लगा रहे हैं कि आगामी लोकसभा त्रिशंकु होगी। 1989 से ऐसी ही स्थितियां बन रही हैं। ऐसे में गठबंधन सरकारें निकट भविष्य में भी देखने को मिलेंगी। विगत अनुभव बताते हैं कि ऐसे गठबंधन दीर्घकालिक होते हैं जिनमें बड़ी पार्टी केंद्रीय धुरी होती है और छोटे दल उसको सहयोग प्रदान करते हैं। यह मॉडल सबसे पहले प्रभावी ढंग से पश्चिम बंगाल एवं केरल राज्यों में वाम मोर्चे की सरकारों में प्रभावी रूप से लागू हुआ। पश्चिम बंगाल में माकपा केंद्रीय भूमिका में थी और छोटे दल भाकपा, फारवर्ड ब्लॉक और आरएसपी इसको समर्थन दे रहे थे। इसलिए जब बड़े दल सरकार बनाने के लिए छोटे दलों या समूहों को बाहर से सहयोग करते हैं तो ऐसे गठबंधन अस्थिर होते हैं। इसका उदाहरण चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली सरकार में दिखता है। उनकी 54 सदस्यीय पार्टी को कांग्रेस पार्टी ने बाहर से समर्थन दिया और 1991 में चार महीनों के भीतर ही सरकार का पतन हो गया। ऐसा संयुक्त मोर्चा की सरकार के साथ भी हुआ। ऐसा भी नहीं है कि बड़ी पार्टी के केंद्रीय भूमिका वाली गठबंधन सरकारों में समस्याएं नहीं होतीं। अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली क्रमश: राजग और संप्रग सरकारों में ऐसा देखने को मिला है। 1998 में वाजपेयी सरकार के सत्ता में आने के साथ ही उसको गठबंधन सहयोगियों 'ममता, समता और जयललिता' की कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ा। एक साल बाद जयललिता के समर्थन वापस लेने के बाद 1999 में वाजपेयी सरकार गिर गई। उसके बाद 1999-2004 के बीच का वाजपेयी सरकार का कार्यकाल अपेक्षाकृत स्थिर रहा। डॉक्टर मनमोहन सिंह ने अपनी कई समस्याओं के लिए 'गठबंधन के दबाव' को जिम्मेदार ठहराया। चाहे 2009 में द्रमुक के दबाव में अनिच्छा के साथ ए राजा को टेलीकॉम मंत्री बनाने का मसला हो या ममता बनर्जी का मामला हो, जिन्होंने सरकार से समर्थन खींच लिया। द्रमुक ने भी बाद में समर्थन वापस ले लिया। ऐसे में 2014 में भले ही त्रिशुंक सदन हो और गठबंधन सरकार सत्ता में आए लेकिन इस बात की संभावना है कि भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी। चर्चा तो अब इस बात की चल रही है कि पार्टी कितनी सीटें जीतेगी। अधिकांश लोगों का मानना है कि यदि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा 200 सीटों को जीत लेती है तो गंगा बेल्ट के क्षेत्रीय दलों को छोड़कर अन्य उनको समर्थन देने के लिए आगे आ सकते हैं। इस बेल्ट के बिहार , पश्चिम बंगाल (तृणमूल कांग्रेस और वामदल) और उत्तर प्रदेश (मायावती एवं समाजवादी पार्टी) में क्रमश: 2015, 2016 और 2017 में चुनाव होने हैं। ये दल अल्पसंख्यकों के मतों पर काफी हद तक निर्भर हैं और अपने विरोधियों को कोई भी मौका नहीं देना चाहते। इसके अलावा अन्य दल मोदी के सरकार बनाने की स्थिति में उनको समर्थन दे सकते हैं। भाजपा ने छोटे समूहों से गठबंधन बनाना शुरू भी कर दिया है। बिहार में रामविलास पासवान के साथ, यूपी में अपना दल, ओडिशा में छोटे समूह, तमिलनाडु में विजयकांत की डीएमडीके, पीएमके एवं एमडीएमके के अलावा आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देसम और जगनमोहन रेड्डी की वाइएसआर कांग्रेस तक चुनाव से पहले ही पहुंच बनाने की कोशिश की जा रही है। दूसरी तरफ ममता बनर्जी ने फिलहाल वामदलों के प्रयासों से बने 11 दलों के थर्ड फ्रंट को गच्चा दे दिया है। उन्होंने अन्ना हजारे के साथ अपने फेडरल फ्रंट के विचार को पुनर्जीवित कर दिया है और उन्होंने जयललिता को अपने पाले में लेकर उनके प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को प्रोजेक्ट कर रही हैं। जयललिता ने भी लेफ्ट के साथ सीट समझौते को रद कर दिया है। स्पष्ट है कि ये गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई पार्टियां चुनाव के बाद एक बड़े शक्ल के रूप में उभरेंगी लेकिन साथ ही यह अभी से स्पष्ट हो गया है कि इनमें से कई प्रधानमंत्री पद की दावेदारी अभी से पेश करने लगे हैं। इनमें से कई अपने राज्यों में अपने प्रदर्शन को बेहतर करने के लिए अभी से खुद को प्रधानमंत्री पद के संभावितों की सूची में शामिल कर रहे हैं। बिहार में नीतीश कुमार, भाजपा और राजद-कांग्रेस गठबंधन की कठिन चुनौती का सामना कर रहे हैं। ऐसे में जब वह खुद को मोदी या राहुल से बेहतर पीएम पद के लिए उम्मीदवार बताते हैं तो वह एक तरह से बिहारी अस्मिता के नाम पर अपने चुनाव प्रदर्शन को बेहतर करने की कोशिश में ही प्रतीत होते हैं। कुछ ऐसा ही जयललिता तमिलनाडु में कर रही हैं। इन परिस्थितियों में मोदी या चाहे जो भी सत्ता में आए उसके समक्ष गठबंधन सरकार के मुखिया के तौर पर इस तरह की पार्टियों या फ्रंट की मांगों की चुनौती होगी। इसके लिए दृढ़ता और लचीलेपन दोनों ही तरीकों से निपटना होगा। -नीरजा चौधरी (राजनीतिक विश्लेषक)