'आप' का जलवा: दस लाख से अधिक ने थामी झाड़ू

10 lakh member join aap

घरों में पहले जहां झाडू़ छिपाकर रखी जाता थी, अब वह लग्जरी गाड़ियों संग लोगों के लिए शान की प्रतीक बन गई है। दिल्ली में झाडू को मिली ऐतिहासिक जीत से गदगद देशभर के आम लोग उससे जुड़ने को बेकरार हैं।

झाडू को थामने के लिए ऑनलाइन और ऑफलाइन जुड़ने के सारे रिकार्ड टूट रहे हैं। देश समेत दुनियाभर से लोग ‘आप’ को थामने के लिए लाइन में डटे हुए हैं।

कनॉट प्लेस स्थित हनुमान मंदिर के पीछे ‘आम आदमी पार्टी’ के दिल्ली मुख्यालय में नववर्ष की पूर्व संध्या पर मंगलवार को हर कोई सदस्य बनने पहुंच रहा था। लग्जरी गाड़ियों से उतरते युवाओं के सिर पर ‘मैं हूं आम आदमी’ की टोपी सजी हुई थी।

युवा आते ही कार्यकर्ताओं से पार्टी सदस्य बनने की इच्छा जाहिर करते हुए लाइन में लग जाते थे। युवा सदस्य बनने के साथ सीने पर आप का सिंबल (छोटा झाडू) लटका लेते हैं और शान से फिर लग्जरी गाड़ी में बैठ निकल रहे थे।

दिग्गज पार्टियों से लेकर भ्रष्टाचार से परेशान आम लोग केजरीवाल के वर्किंग स्टाइल से प्रभावित होकर झाडू को थाम रहे हैं। उन्हें लगता है कि जैसे दिल्ली में बदलाव आया है, वैसे ही देशभर में भी आएगा।

पार्टी गेट से लेकर अंदर बरामदे तक टेबल पर ‘आप’ स्वयंसेवक आने वाले लोगों की जानकारी लेकर आवेदन डायरी भरने में मशगूल थे। सात से आठ टेबल में युवाओं की लंबी-लंबी कतारें लगी हुई थी।

महज आधे मिनट में दस रुपये देने के साथ ही एक ‘आप’ सदस्य की गिनती बढ़ जाती है।

दिल्ली के सिंहासन की जीत दर्ज करने वाली राजधानी की दूसरे नंबर की पार्टी बनने के बाद से ऑनलाइन समेत ऑफलाइन सदस्यता फार्म धड़ाधड़ भर रहे हैं। आप कार्यकर्ताओं के मुताबिक, महज 23 दिनों में दिल्ली में ऑनलाइन 1 लाख 18 हजार लोगों ने सदस्यता हासिल की है।

जबकि एक लाख से अधिक ऑफलाइन जुड़ चुके हैं। ऐसे ही उत्तर प्रदेश से एक लाख सदस्य ऑनलाइन तो 70 हजार से अधिक ऑफलाइन जुड़े हैं। हरियाणा में सवा लाख सदस्य ऑनलाइन तो 85 हजार से अधिक पार्टी कार्यालयों में जाकर सदस्य बनने का फार्म भर चुके हैं।

केरला में साढ़े 28 हजार ऑनलाइन तो 25 हजार ऑफलाइन, कर्नाटक में साढ़े 23 हजार ऑनलाइन तो 18 हजार से अधिक ऑफलाइन जुड़ चुके हैं। उत्तराखंड में भी 70 हजार से अधिक ऑनलाइन तो इतने ही ऑफलाइन जुड़े हैं।

बता दें कि चुनाव से पहले तक ‘आप’ के 3 लाख 33 हजार 985 सदस्य ऑनलाइन जुड़ चुके थे। जबकि दिल्ली से 80 हजार शामिल थे। हालांकि ऑफलाइन का रिकार्ड अभी तक पार्टी के पास नहीं है।

साढ़े तीन लाख से अधिक ऑनलाइन सदस्य
दिल्ली सिंहासन की जीत के बाद ‘आप ’ सदस्य बनने का काम लगातार जारी है। ऑनलाइन और ऑफलाइन माध्यम से देशभर से आप सदस्यों की संख्या बढ़ती जा रही है।

अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मात्र 23 दिनों में दिल्ली में ऑनलाइन 1 लाख 18 हजार, यूपी, हरियाणा व बिहार से 1 लाख से अधिक सदस्य जुड़ चुके हैं।

जबकि लगभग इतने ही सदस्य इन राज्यों से ऑफलाइन माध्यम से बने हैं। देशभर से ऑनलाइन सदस्यों को जोड़ा जाए तो अब तक के सारे रिकार्ड टूट चुके हैं।

माननीयों की सेफ्टी पर अरबों खर्च कर चुके अखिलेश

billions spent in uttar pradesh over security

यूपी में माननीयों की सुरक्षा सरकारी खजाने पर लगातार चोट कर रही है।

करीब दो हजार माननीयों की सुरक्षा बनाए रखने के लिए सरकारी खजाने पर रोज 77 लाख रुपये खर्च हो रहे हैं।

यानी हर माह 22 करोड़, 77 लाख 60 हजार रुपये। इस खर्च को सालाना आंके तो यह करीब दो अरब 73 करोड़ 31 लाख 20 हजार रुपये बैठता है।

यानी माननीयों की सुरक्षा पर सरकारी खजाने को हर साल 273 करोड़ रुपये की चोट पहुंचती है।

तस्वीर का एक दूसरा रुख भी है। सूबे में सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर लाल बत्ती और सुरक्षाकर्मी दिए जाने का नतीजा यह है कि 10 महीने में रसूखदारों की सुरक्षा पर खर्च होने वाली रकम दोगुनी हो गई है।

फरवरी 2013 में इनकी सुरक्षा पर हर माह 10 करोड़ 20 लाख रुपये खर्च हो रहे थे जो दिसंबर में बढ़कर 23 करोड़ रुपये पहुंच गया। यही नहीं, इस दौरान सुरक्षाकर्मियों की संख्या भी 2900 से बढ़कर 5600 से अधिक हो गई।

सूबे में सुरक्षाकर्मी रखना स्टेटस सिंबल माना जाता है। नेताओं और रसूखदारों में सबसे ज्यादा जोर सुरक्षा कर्मी और शस्त्र लाइसेंस हासिल करने पर रहता है।

इसके लिए हर जुगत भिड़ाई जाती है। पहली प्राथमिकता यह होती है कि सुरक्षा कर्मी सरकारी खर्चे पर मिले। अगर ऐसा नहीं हुआ तो आंशिक व्यय या फिर पूर्ण व्यय पर हासिल करने की जोड़-तोड़ शुरू हो जाती है।

पुलिस विभाग के आंकड़ों के मुताबिक मौजूदा समय में 1998 महानुभाव हैं जिन्हें शासकीय व्यय पर सुरक्षा हासिल है।

तत्कालीन आईजी कानून-व्यवस्था बद्री प्रसाद ने एक फरवरी 2013 को औपचारिक रूप से जानकारी दी थी कि उस समय कुल 1146 माननीयों को शासकीय व्यय पर सुरक्षा हासिल थी।

तब सबसे अधिक सुरक्षा कर्मी लखनऊ में, इसके बाद इलाहाबाद और फिर गौतमबुद्ध नगर से दिए गए थे। उस लिहाज से तब पूरे साल में यह खर्च एक अरब 22 करोड़ 43 लाख दस हजार 850 रुपए था जो अब बढ़ कर लगभग पौने तीन अरब रुपये तक पहुंच चुका है।

किन्हें हासिल है यह सुरक्षा
मुख्यमंत्री से लेकर मंत्रिमंडल के सदस्य, विधायक, सांसद, विधान परिषद के सदस्य, निगमों व उपक्रमों के अध्यक्ष, विभिन्न राजनीतिक दलों के जन प्रतिनिधि, पूर्व मंत्री, न्यायाधीश व अन्य लोग। इनमें नि:शुल्क व आधे शुल्क वाले सुरक्षाकर्मियों का व्यय भी शामिल है।

अखिलेश से क्यों ख़फा हैं मुलायम सिंह?

मुलायम सिंह यादव
उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी समाजवादी पार्टी क़ानून व्यवस्था के मुद्दे पर न सिर्फ़ विपक्ष की चौतरफ़ा आलोचनाओं से घिरी है बल्कि खुद पार्टी के नेता भी सवाल उठा रहे हैं.
पार्टी के सांसद और मुलायम सिंह यादव के भाई रामगोपाल यादव ने अपने पैतृक गांव सैफई में राज्य में बढ़ती गुंडागर्दी को लेकर चिंता व्यक्त की.
उन्होंने कहा कि समाजवादी पार्टी के कुछ मंत्री-विधायक-नेताओं की गुंडागर्दी की वजह से सरकार की भारी बदनामी हो रही है.
21 दिसंबर को जौनपुर ज़िले में उत्तर प्रदेश के अखिलेश यादव की सरकार में एक कैबिनेट मंत्री के पुत्र ने समाजवादी पार्टी के ही कुछ अन्य कार्यकर्ताओं के साथ बदसलूकी की.
इस घटना के दो दिन बाद, 23 दिसंबर को, पार्टी के लोगों को सम्बोधित करते हुए क्लिक करेंमुलायम सिंह यादव ने कहा कि "समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता कई स्थानों पर गुंडागर्दी करते हैं. यदि किसी मंत्री के परिवार का एक व्यक्ति गुंडागर्दी करता है तो हमारी छवि करती है. यदि मुझे गुंडागर्दी की किसी घटना का पता चला तो उसमें जिसका हाथ होगा मैं उसे पार्टी से निकाल दूंगा."
पार्टी की छवि को सुधारने के उद्देश्य से 25 दिसंबर को जौनपुर में पार्टी के कार्यकर्ता गिरफ़्तार तो कर लिए गए लेकिन आश्चर्य है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जौनपुर की घटना पर कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की.

'नाराज़' मुलायम


मुलायम ने अपने कार्यकर्ताओं को शालीन बनने को कहा है.
यह पहला अवसर नहीं है जब प्रदेश में पार्टी के कार्यकर्ताओं की आपराधिक गतिविधियों और प्रशासनिक ढिलाई पर मुलायम को बोलना पड़ा है और अखिलेश खामोश रहे हैं.
कुछ मौकों पर तो मुलायम ने अपने पुत्र क्लिक करेंअखिलेश को जनता के सामने डाँट लगाई है.
23 मार्च को लखनऊ में एक भाषण में अखिलेश को सख़्त प्रशासक बनने की सलाह दी. उन्होंने कहा, "अखिलेश, सरकार लचीलेपन से नहीं बल्कि सख़्ती से चलती है."
मुलायम ने यह बात पार्टी की छवि ख़राब करने वाले मंत्रियों और अफ़सरों से नाराज़ हो कर कही.
इसी साल 13 अक्टूबर को अखिलेश यादव, शिवपाल यादव एवं अन्य वरिष्ठ मंत्रियों की उपस्थिति में मुलायम ने कार्यकर्ताओं से कहा "जो लोग में सत्ता में हैं मैं उन पर पैनी नज़र रखे हुए हूं. उनको अपना रवैया बदलना चाहिए, नहीं तो मेरे लिए मुश्किल होगी. यदि आप अपने मंत्री, विधायक या सांसद से नाराज़ हैं तो उसका बदला मुझसे मत लीजिए. क्या आप मुझे अकेले संसद भेजेंगे?"
मंत्रियों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि सब यहाँ मौजूद हैं और स्थिति को सुधारने के लिए मुख्यमंत्री इनसे बात करेंगे.

चेतावनी

उन्होंने मंत्रियों और अखिलेश को चेतावनी देते हुए कहा कि वे जनता को अनपढ़ ना समझें और ऐसा कुछ ना करें जो स्वान्तः सुखाय हो.
इससे पहले एक अगस्त 2012 को मुलायम ने अपने दल के कार्यकर्ताओं से अपील की कि वे पार्टी के विधायकों, मंत्रियों और सांसदों के किए की सज़ा उन्हें ना दें. अखिलेश सरकार के छह माह भी नहीं हुए थे जब 'नेताजी' ने यह बात कही. उन्होंने यह भी कहा कि प्रदेश सरकार अपने लक्ष्यों को पूरा नहीं कर रही है.

अखिलेश यादव
मुलायम की टिप्पणी के जवाब में अखिलेश ने कहा कि वो इस आलोचना को स्वीकार करते हैं. उन्होंने कहा, "वो हमारे नेता हैं, हम उनकी सलाह मानने की कोशिश करेंगे और जो वो कहते हैं करेंगे."
लचर क़ानून-व्यवस्था के लिए क्लिक करेंसमाजवादी पार्टी की सरकार उस समय भी बदनाम थी जब मुलायम स्वयं मुख्यमंत्री थे और यही कारण था कि 2007 में क्लिक करेंमायावती ने पूर्ण बहुमत से चुनाव जीता था.
आशा की जा रही थी की एक युवा नेता के रूप में अखिलेश पार्टी की छवि को सुधारने में सफल होंगे. किन्तु उनके शपथ ग्रहण समारोह से पार्टी कार्यकताओं ने जो उद्दंडता दिखलानी शुरू की वह आज भी जारी है.

चिंता का विषय

मुलायम की 23 दिसंबर को दी गई चेतावनी के बाद एक विधायक के समर्थक बिना नंबर प्लेट की लाल बत्ती लगी गाड़ियों में पकडे गए. यही नहीं, उन्होंने एक वरिष्ठ पुलिस अफसर को धमकी भी दी.
बढ़ती हुई अव्यवस्था मुलायम के लिए गम्भीर चिंता बनी हुई है. वो समझ चुके हैं कि उनकी पार्टी के कार्यकर्ता, विधायक और मंत्री सभी ने मिलकर अखिलेश सरकार की छवि इतनी ख़राब कर दी है कि लोकसभा चुनाव में अब ज़्यादा सीट लाना एक दुष्कर कार्य हो गया है.
इसीलिए अपने 23 दिसंबर के भाषण में अपने मन की बात युवा वर्ग के सामने खुल कर रखते हुए मुलायम ने कहा, "अखिलेश को तो सीएम बनवा दिया अब हमें कब आगे बढ़ाओगे? हम कोई साधू-संन्यासी नहीं हैं. हमारे दिल में भट्ठी धधक रही है."

आम आदमी पार्टी

यह अकल्पनीय है कि महज एक साल पहले राजनीतिक दल के रूप में गठित आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के शासन की बागडोर संभाल ली। इस दल ने जिस तरह अपने गठन के बाद से लेकर विधानसभा चुनाव में करिश्माई जीत हासिल करने तक राजनीति के पारंपरिक तौर-तरीकों से हटकर काम किया उससे दिल्ली के साथ-साथ शेष देश की राजनीति भी प्रभावित नजर आ रही है। आम आदमी पार्टी का उत्थान महज एक क्षेत्रीय दल का उदय नहीं है। यह आम आदमी की उम्मीदों के साथ-साथ एक नए किस्म की वैकल्पिक राजनीति का भी उदय है। अरविंद केजरीवाल और उनके साथी आम आदमी का ही प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे, बल्कि वे उसके सपनों को साकार करने वाली राजनीति की ताकत को भी रेखांकित कर रहे हैं। शायद यही कारण है कि राष्ट्रीय दलों के साथ-साथ क्षेत्रीय दल भी आम आदमी पार्टी की धमक महसूस कर रहे हैं। उन्हें ऐसा करना ही चाहिए, क्योंकि उन्होंने आम आदमी की अपेक्षाओं की जानबूझकर अनदेखी करने के साथ ही खुद में बदलाव की जरूरतों को भी नकारने का काम किया है। अगर मुख्यधारा के राजनीतिक दलों ने आम आदमी की भावनाओं का आदर करते हुए अपनी राजनीति के घिसे-पिटे तौर-तरीकों का परित्याग किया होता तो शायद आज उन्हें आम आदमी पार्टी के रूप में एक बड़ी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ता। स्थापित राजनीतिक दलों के सामने एक चुनौती के रूप में उभरने और उन्हें अपनी रीति-नीति पर नए सिरे से विचार करने हेतु विवश करने के लिए केजरीवाल और उनके साथियों को विशेष रूप से धन्यवाद दिया जाना चाहिए। उन्होंने वह कर दिखाया जिसके बारे में आम आदमी के लिए कल्पना करना मुश्किल था।
नि:संदेह दिल्ली सरकार की कमान संभालने के साथ ही अरविंद केजरीवाल ने कांटों का ताज पहन लिया है। उनसे दिल्ली के साथ ही शेष देश की जनता को बहुत सी अपेक्षाएं हैं। इसके अतिरिक्त उनके सामने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की एक बड़ी चुनौती भी है। यह अच्छी बात है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने के उनके संकल्प और तेवरों को देखते हुए दिल्ली की नौकरशाही आशंकित नजर आ रही है, लेकिन उनकी लड़ाई तब आसान होगी जब भ्रष्टाचार के खिलाफ उन्हें नौकरशाही का सहयोग भी मिलेगा। एक नौकरशाह होने के नाते केजरीवाल को यह अहसास अवश्य होगा कि भ्रष्टाचार से लड़ने की बातें करने की अपेक्षा उसे नियंत्रित करना कहीं मुश्किल है। उन्होंने ठीक कहा कि उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं। ऐसी कोई छड़ी किसी के पास नहीं हो सकती, लेकिन ऐसा तंत्र अवश्य बनाया जा सकता है जो आम जनता की समस्याओं का समाधान करने के साथ ही भ्रष्टाचार पर प्रभावी ढंग से अंकुश लगाने में भी सक्षम हो। यही उनकी सफलता के निर्धारण की सबसे बड़ी कसौटी भी होगी। चूंकि आम आदमी पार्टी का उद्देश्य राजनीति और सत्ता की ताकत के जरिये व्यवस्था में बदलाव लाना है इसलिए उसके नेताओं को कुछ लचीलेपन के साथ व्यावहारिक भी बनना होगा। ऐसा करके ही अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगी उन उम्मीदों को पूरा कर सकते हैं जिसके भरोसे दिल्ली की जनता ने उन्हें सत्ता तक पहुंचाया है।

भ्रष्ट तन्त्र के विरोध का हस्र .......


रामलीला मैदान में केजरीवाल के शपथ ग्रहण के दौरान एक पुलिसकर्मी ने भी आवाज उठाने की कोशिश की, मगर उसके साथ क्या हुआ, खुद देखें।


रामलीला मैदान में केजरीवाल के शपथ ग्रहण के दौरान एक पुलिसकर्मी ने भी आवाज उठाने की कोशिश की, मगर उसके साथ क्या हुआ, खुद देखें।

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'मैं नहीं, आम आदमी है मुख्यमंत्री'

अरविंद केजरीवाल
आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में दिल्ली के नए मुख्यमंत्री के बतौर शपथ ले ली. वह दिल्ली के सातवें मुख्यमंत्री बन गए हैं.
केजरीवाल पार्टी के कौशांबी दफ़्तर से मेट्रो के ज़रिए रामलीला मैदान पहुंचे.
केजरीवाल को उपराज्यपाल नजीब जंग ने शपथ दिलाई. उनके साथ ही विधायकों मनीष सिसोदिया, सोमनाथ भारती, सत्येंद्र जैन, कुमारी राखी बिरला, गिरीश सोनी और सौरभ भारद्वाज ने भी शपथ ग्रहण की.
शपथ लेने के बाद केजरीवाल ने कहा, ''आम आदमी की जीत हुई है. यह शपथ असल में दिल्ली की जनता ने ली है. यह क़ुदरत का करिश्मा ही है कि दो साल पहले हम यह सोच भी नहीं सकते थे कि हम इस लड़ाई को जीत पाएंगे.''
उन्होंने कहा, ''अरविंद केजरीवाल यह लड़ाई अकेले नहीं लड़ सकता. उनका कहना था कि हमारे पास सभी समस्याओं का समाधान नहीं है. न हमारे पास कोई जादू की छड़ी है, लेकिन दिल्ली की जनता मिलकर दिल्ली की समस्याओं का समाधान निकाल सकती है.''
अन्ना हज़ारे और दो साल पहले उनके आंदोलन का ज़िक्र करते हुए अरविंद केजरीवाल का कहना था कि उन्होंने अन्ना से कहा था कि बगैर राजनीति में जाए इसकी गंदगी साफ़ नहीं की जा सकती. उन्होंने आज के दिन को ऐतिहासिक बताया. उन्होंने इस मौक़े पर अफ़सरों के सहयोग की भी आशा जताई.
अरविंद केजरीवाल
रामलीला मैदान पर मौजूद बीबीसी संवाददाता ज़ुबैर अहमद ने बताया कि शपथ ग्रहण के दौरान रामलीला मैदान में बड़ी तादाद में लोग जुटे थे. पार्टी समर्थकों ने आम आदमी पार्टी की टोपी पहन रखी थी.
केजरीवाल के गांव सिवनी और खेड़ा से बहुत से लोग आए हैं और लगातार आ रहे थे. माहौल में काफ़ी जश्न का माहौल है, मानो कोई त्योहार हो. बीबीसी संवाददाता के मुताबिक़ लोगों का कहना है कि 15 अगस्त और 26 जनवरी को भी इतनी भीड़ नहीं होती, जितनी भीड़ इस कार्यक्रम में देखी गई है.

मेट्रो से पहुंचे केजरीवाल

केजरीवाल के साथ मंत्री पद की शपथ लेने वाले आम आदमी पार्टी के छह विधायक भी मेट्रो से ही रामलीला मैदान पहुँचे.
भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन से निकली केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने सत्ताधारी कांग्रेस को करारी शिकस्त देकर अपने राजनीतिक सफ़र का शानदार आगाज़ किया है.
अरविंद केजरीवाल
विधानसभा में 28 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी कांग्रेस के बाहरी समर्थन से अल्पमत की सरकार बना रही है.
32 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी भारतीय जनता पार्टी ने सरकार बनाने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि उनके पास पर्याप्त बहुमत नहीं है.
इसके बाद उप-राज्यपाल ने दूसरी सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण अरविंद केजरीवाल को सरकार बनाने के लिए विचार विमर्श करने की दावत दी थी. जब कांग्रेस ने समर्थन की घोषणा कर दी, तब केजरीवाल ने दिल्लीवासियों से पूछा था कि उन्हें सरकार बनाना चाहिए या नहीं.
केजरीवाल के अनुसार लोगों ने उन्हें सरकार बनाने के लिए कहा था, जिसके बाद ही उन्होंने सरकार बनाने का फ़ैसला किया.
अरविंद केजरीवाल
चुनावों से पहले केजरीवाल ने राजनीति में वीआईपी संस्कृति समाप्त करने का वादा किया था और सार्वजनिक यातायात सेवा से शपथग्रहण समारोह में पहुँचकर वे अपने वादों को पूरा करने का संकेत देने के साथ-साथ दिल्ली के राजनीतिक और प्रशासनिक वीआईपी लोगों को ज़मीन पर रहने का संदेश भी दे रहे हैं.

'आम जनता मुख्यमंत्री'

शपथग्रहण समारोह से पहले केजरीवाल ने कहा, "मैं मुख्यमंत्री नहीं बन रहा हूँ बल्कि दिल्ली की आम जनता मुख्यमंत्री बन रही है."
साल 2010 में शुरू हुए भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन की कई बड़ी और ऐतिहासिक रैलियों का आयोजन भी रामलीला मैदान में ही किया गया था.
आम आदमी पार्टी ने आंदोलन के दौरान सहयोगी रही पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी, गाँधीवादी अन्ना हज़ारे और संतोष हेगड़े को शपथग्रहण समारोह में शामिल होने का न्योता भिजवाया था.
किरण बेदी और अन्ना हज़ारे ने शपथग्रहण में शामिल न होने के संकेत दिए थे जबकि संतोष हेगड़े ने दिल्ली का सीएम बनने जा रहे केजरीवाल को शुभकामनाएं दी हैं.

केजरीवाल के शपथग्रहण समारोह के लिए रामलीला मैदान को पूरी तरह तैयार किया गया था.

रामलीला मैदान में आज केजरीवाल लेंगे सीएम पद की शपथ



नई दिल्ली। आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल शनिवार को दोपहर बारह बजे रामलीला मैदान में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे। उनके साथ आज छह अन्य भी मंत्री पद की शपथ लेंगे। इस शपथ ग्रहण समारोह में करीब एक लाख लोगों के शामिल होने की उम्मीद है। केजरीवाल ने इस समारोह में शामिल होने के लिए सभी दिल्लीवासियों को न्यौता भेजा है।
इससे पहले शुक्रवार को शपथ ग्रहण समारोह की सभी तैयारियां पूरी कर ली गई। रामलीला मैदान में इस दौरान तीन स्तरीय सुरक्षा व्यवस्था रहेगी। अरविंद केजरीवाल अपने कौशांबी स्थित आवास से मेट्रो के जरिए नई दिल्ली स्टेशन पहुंचेंगे। यहां से वह अपनी कार में सवार होकर रामलीला मैदान पहुंचेंगे। उनके साथ में उनके मंत्रिमंडल में शामिल सभी विधायक भी होंगे।
दिल्ली के भावी मुख्यमंत्री ने साफ किया है कि वह किसी भी तरह की कोई सुरक्षा नहीं लेंगे। उन्होंने कहा कि शपथ ग्रहण समारोह में उनका परिवार और सभी विधायकों का परिवार आम जनता के बीच एक आम आदमी की ही तरह बैठेगा। किसी को भी कोई वीआईपी ट्रीटमेंट नहीं मिलेगा। शपथ ग्रहण करने से पूर्व शुक्रवार को केजरीवाल ने अपने घर के बाहर जनता दरबार लगाकर लोगों की परेशानियों को सुना।

इसके बाद वह अपने विधानसभा क्षेत्र में भी गए। वहां पर लोगों की समस्याओं का जवाब देने के लिए वह अपने साथ एनडीएमसी के सचिव को भी साथ लेकर गए, जहां उन्होंने खुद लोगों के सवालों के जवाब दिए। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार से लोगों की उम्मीदें लगातार बढ़ रही हैं। लेकिन दूसरी और भाजपा का कहना है कि यह सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पाएगी। भाजपा नेता डॉक्टर हर्षवर्धन ने आप पार्टी पर लोगों को धोखा देने का भी आरोप लगाया है।
वहीं केजरीवाल ने कहा है कि भले ही यह सरकार कुछ ही दिन की हो लेकिन जितने भी दिन सरकार चलेगी वह अपने वायदे पूरे कर के दिखाएंगे। आज शपथ ग्रहण करने के बाद केजरीवाल को सदन में तीन जनवरी को अपना बहुमत साबित करना होगा।

'ठंड से मौत होती तो साइबेरिया में ज़िंदा कैसे?'

राहत शिविर में रह रही महिला अपने बच्चे के साथ
उत्तर प्रदेश के प्रमुख गृह सचिव अतुल गुप्त ने कहा है कि ठंड से किसी व्यक्ति की मौत नहीं होती है.
अतुल गुप्त शुक्रवार को मुज़फ़्फ़रनगर राहत शिविरों में बच्चों की मौत की जाँच के लिए प्रदेश सरकार की ओर से बनाई गई समिति के नतीजों को मीडिया के सामने रख रहे थे.
उन्होंने कहा, ''बच्चों की मौत निमोनिया से हुई है, ठंड से नहीं. ठंड से किसी की मौत नहीं हो सकती है. अगर ठंड से लोगों की मौत होती तो साइबेरिया में कोई जिंदा नहीं रहता.''
अतुल गुप्त के इस बयान की काफ़ी आलोचना हो रही है. वहीं राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने गुप्त के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि अधिकारियों को बयान देते समय सावधानी बरतने की सलाह दी. उन्होंने कहा, "शब्दों का चयन ऐसा होना चाहिए जिससे किसी की भावना को चोट न पहुँचे."

बच्चों की मौत

जांच समिति की रिपोर्ट आने के बाद प्रदेश सरकार ने पहली बार यह स्वीकार किया है, दंगों के बाद 15 साल तक की आयु के 34 बच्चों की मौत हुई है.
जांच समिति ने कहा है कि इनमें से केवल 10-12 बच्चों की ही मौत सात सितंबर से लेकर 20 दिसंबर के बीच राहत शिविरों में निमोनिया की वजह से हुई है. समिति ने कहा है कि बाकी के बच्चों की मौत सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों में हुई , जहाँ उनके माता-पिता उन्हें इलाज के लिए ले गए थे.
प्रमुख सचिव ने कहा कि कुल चार हजार सात सौ 83 लोग पाँच राहत शिविरों में रह रहे हैं. इनमें से एक शिविर मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के लोई और मदरसा तैमुल शाह, मलककुर, बरनावी औरक ईदगाह शामली ज़िले में चल रहे हैं.
उन्होंने कहा कि मरने वाले बच्चों में अधिकांश वे बच्चे थे जिनते माता-पिता उन्हें इलाज़ के लिए कैंप से बाहर ले गए या जिन्हें सरकारी अस्पतालों में भेजा गया. उन्होंने कहा कि सभी बच्चे अलग-अलग कारणों से मरे. इनमें से चार बच्चों की मौत निमोनिया हुई तो कुछ की मौत पेचिश की वजह से और एक नवजात की मौत समय से पहले पैदा होने की वजह से हुई.
अतुल गुप्त के इस बयान के बाद जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने माइक्रो ब्लागिंग वेबसाइट ट्विटर पर लिखा, ''ठंड से कोई नहीं मरता'', उनको कम कपड़ों में ठंड में भेज दीजिए, फिर देखिेए कि उनके सुर कैसे बदलते हैं.
वहीं पत्रकार ने शाहीद सिद्दीकी ने ट्विटर पर लिखा, ''अखिलेश और उनकी सरकार को साइबेरिया भेज देना चाहिए, जो ठंड से मरते बच्चों को छोड़कर सैफई महोत्सव पर सैकड़ों करोड़ रुपए बहा रही है.''

सरकार का हलफ़नामा

एक राहत शिविर में लोगों की समस्याएं सुनते कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी

उत्तर प्रदेश सरकार ने इससे पहले मुज़फ़्फरनगर के किसी भी राहत शिविर में किसी बच्चे की मौत से इनकार किया था. उसने इसी तरह का एक हलफ़नामा सुप्रीम कोर्ट में दायर किया था.
मीडिया में आई ख़बरों के आधार पर देश की सर्वोच्च अदालत ने उत्तर प्रदेश सरकार से इन तथ्यों की पुष्टि करने को कहा था.
इसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने 13 दिसंबर को इस जांच समिति को गठित किया था. मेरठ मंडल के आयुक्त मनजीत सिंह का इसका प्रमुख बनाया गया था. मुज़फ़्फ़रनगर और शामली ज़िले के जिलाधिकारी और मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी इसके सदस्य थे.
इस समितो ने पहले 11 बच्चों की मौत की पुष्टि की थी. समिति ने अब राहत शिविरों में 34 बच्चों की मौत की पुष्टि की है.
हालांकि उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (सपा) के प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने कहा था कि इन राहत शिविर में कोई दंगा पीड़ित नहीं रह रहा, वहाँ जो लोग रह रहे हैं वे कांग्रेस और भाजपा के लोग है. उनका कहना था कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी चुनान में वोट बटोरने के लिए इस मुद्दे को ज़िंदा रखना चाहते हैं.
उनका यह बयान राहुल गांधी के इन राहत शिविरों के दौरे के ठीक एक दिन बाद आया था.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने बच्चों की मौत के मामले प्रदेश के प्रमुख सचिव और मुज़फ़्फ़रनगर व शामली के ज़िलाधिकारियों को नोटिस भेजा है.

सियासत: राजनीति की नई संस्कृति

दिल्ली में आप की सरकार अस्तित्व में आ रही है। यह भारतीय राजनीति में नई संस्कृति की शुरुआत होगी। जब इस देश में राजनीतिक दल भ्रष्टाचार से पोषित राजनीति को कड़वी हकीकत मान चुके थे आप ने दिखा दिया है कि ईमानदारी से इकट्ठा किए गए चंदे से चुनाव लड़ा भी जा सकता है और जीता भी। यही अपने आप में स्थापित दलों को झकझोरने के लिए काफी है। भ्रष्टाचारियों और अपराधियों में साठ-गांठ के कारण राजनीति पर अपराधियों का दबदबा कायम हो चुका है। आप ने एक ऐसा तंत्र विकसित किया, जिसमें भ्रष्टाचार की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है। अभी तक चुनाव लड़ने और सरकार के गठन के लिए तैयार होने तक में आप ने अनेक अभिनव किए हैं। ईमानदार उम्मीदवारों का चुनाव, चुनाव लड़ने के लिए वित्ता प्रबंधन, सरकार बनाने से पहले जनता से रायशुमारी, क्षेत्रवार घोषणापत्र जारी करना आदि अनेक मुद्दों से स्पष्ट हो जाता है कि आम आदमी पार्टी ईमानदार राजनीति पर चल रही है। आप की चयन प्रक्रिया भी ऐसी है कि इसमें कोई अपराधी टिकेगा ही नहीं। अत: एक ही झटके में राजनीति को अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के चंगुल से मुक्त कराने के असंभव से दिखने वाले काम को आप ने आसानी से करके दिखा दिया है।
अब आप सरकार में आने के बाद स्थापित राजनीतिक संस्कृति को बदलने की तैयारी में है। आप के मंत्री लालबत्ताी वाली गाड़ियों, सुरक्षा, बंगले आदि सत्ता के प्रतीक चिन्हों से दूर रहेंगे। इससे न सिर्फ नेता व जनता के बीच की दूरी कम होगी, बल्कि बहुत सा अनावश्यक खर्च भी बचेगा। जन प्रतिनिधि सही अथरें में जनता का प्रतिनिधित्व करेंगे। जब नेता अपनी सुविधाओं को कम कर देंगे तभी तो वे नौकरशाहों से भी उनकी सुविधाओं को कम करने के लिए कह सकते हैं। यदि आप के नेता ईमानदारी से काम करते हैं तो विभिन्न विभागों में होने वाले भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना आसान हो जाएगा। अभी भ्रष्ट नेता के नाम पर छोटे कर्मचारी भी भ्रष्टाचार करते हैं, किंतु जब नेता घूस व कमीशन लेना बंद कर देंगे तो भ्रष्टाचार पर नीचे तक अंकुश लगेगा। इससे सबसे ज्यादा दिक्कत होगी नौकरशाहों को, जो सबसे च्यादा सुविधाओं का उपभोग करने के आदी हो गए हैं। उनके लिए गलत पैसा लेना बंद करना कष्टदायक होगा। पहली बार भारत में यह संभावना बनती दिख रही है कि विभिन्न सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार खत्म किया जा सकता है, दलाल संस्कृति से मुक्ति मिल सकती है, प्रशासन के काम में पूर्ण पारदर्शिता आ सकती है। भाजपा तो सिर्फ सुशासन की बात ही करती रही। उसने भी अंतत: राजनीति में टिके रहने के लिए कांग्रेस की ही भ्रष्ट संस्कृति की नकल की। पर आप यह काम करके दिखा सकती है क्योंकि इसका शीर्ष नेतृत्व अवसरवादी नहीं है और नैतिक मूल्यों में उसकी निष्ठा है।
यदि आप ने विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं में होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने में सफलता हासिल की तो जनता में उसकी लोकप्रियता बढ़ जाएगी। आम आदमी की सबसे अधिक रुचि स्थानीय मामलों में रहती है। अरविंद केजरीवाल का शुरुआती काम दिल्ली की गरीब बस्तियों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली में होने वाले भ्रष्टाचार के खिलाफ था। उनकी साथी संतोष कोली, जिनका कुछ माह पहले देहांत हो गया, इसी संघर्ष से निकली एक जुझारू कार्यकर्ता थीं। इसी तरह पेंशन की योजनाओं को दुरुस्त करना और ठीक से क्त्रियान्वयन कराना, शिक्षा एवं स्वास्थ्य की व्यवस्थाओं को पटरी पर लाना उनकी लोकप्रियता बढ़ा सकता है। शिक्षा का अधिकार कानून लागू है, किंतु गरीब बच्चों को आरक्षण की व्यवस्था के तहत अच्छे विद्यालयों में दाखिला मिलने में काफी दिक्कत आ रही हैं। कायदे से तो आप को समान शिक्षा प्रणाली लागू कर देनी चाहिए, यानी हरेक बच्चे के लिए एक जैसी शिक्षा व्यवस्था। जो बंगले आप के मंत्रियों के न रहने से खाली रहेंगे उनमें विद्यालय या चिकित्सालय खोले जा सकते हैं। यदि हम हरेक बच्चे को विद्यालय भेज वाकई में कानून के अनुसार मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था लागू करना चाहते हैं तो बहुत सारे विद्यालयों की जरूरत पड़ेगी। मंत्रियों और नौकरशाहों से मिलने के लिए जिन भवनों में उनके कार्यालय स्थित हैं वहां बिना पास के प्रवेश ही नहीं मिलता। इन जगहों पर जाने के लिए पास की अनिवार्यता खत्म कर देनी चाहिए। जब सुरक्षा खत्म की जा सकती है तो यह क्यों नहीं? नौकरशाह इसका कड़ा विरोध करेंगे, लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि वे जनता की सेवा के लिए नियुक्त हैं। जनता से दूरी बनाकर वे भला उसका कल्याण कैसे कर सकते हैं।
आप की सरकार का सबसे रोमांचकारी पक्ष होने वाला है जनता की भागीदारी से सभी निर्णय लेना। जब निर्णय बंद कमरों की जगह खुली बैठकों में होंगे तो उनके गलत होने की संभावना कम हो जाएगी। भ्रष्टाचार पर तो रोक लगेगी ही। जब निर्णय खुले में होंगे तो नेताओं और नौकरशाहों को सुरक्षा की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। चूंकि जनता आप के नेताओं व मंत्रियों पर पैनी नजर भी रखने वाली है इसलिए उनके लिए कोई गलत काम करना मुश्किल होगा। परंतु यदि कोई गलत करता भी है तो जनता उसे गलत काम करने नहीं देगी अन्यथा वह पार्टी से निकाल दिया जाएगा। दिल्ली में आप का शासन भारतीय राजनीति का अभिनव प्रयोग सिद्ध होने वाला है। इसकी सफलता की संभावनाएं काफी हैं क्योंकि इसे बहुत सोच-समझ कर किया जा रहा है। यह सिर्फ भावनाओं के आधार पर नहीं है। इसकी सफलता की इस देश के आम आदमी को काफी उम्मीदें हैं क्योंकि उसकी पीड़ा का इलाज इस नए प्रयोग में हो सकता है। उसे इसी बात से हर्ष हो रहा है कि उसके वोट के बल पर इस देश की सड़ी-गली राजनीतिक व्यवस्था को बदला जा सकता है, जिसकी उम्मीद करना लोगों ने बंद कर दिया था।
[लेखक संदीप पांडे, मैग्सेसे पुरस्कार विजेता सामाजिक कार्यकर्ता हैं]

सांप्रदायिकता की हमारी समझ

 आए दिन समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में इस आशय के लेख आते रहते हैं कि सांप्रदायिकता का विस्तार हो रहा है, जिसका मतलब होता है हिंदू समाज में सांप्रदायिकता का विस्तार हो रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। अगर सांप्रदायिकता एक व्याधि है तो इससे सबसे अधिक क्षति हिंदू समाज को ही होनी है। पर इससे भी दुर्भाग्यपूर्ण है सांप्रदायिकता के विषय में यह प्रस्तुति, जो सभी संप्रदायों या समुदायों की उग्रता और अलगाव को बढ़ाती है और समस्या को समझने तक में बाधक बनती है। इसमें आम आदमी की मोटी समझ और समझदार आदमी की बारीक नासमझी का अंतर भी समझ में आता है। पहला इस समस्या को मुहावरों के सार से जानता है- ‘ताली एक हाथ से नहीं बजती’, या ‘आग लाठी से पीटने से नहीं बुझती’; दूसरा आंकड़ों के भरोसे।
मुहावरे में ताली बजाने वाला एक दूसरा हाथ जरूरी है, आंकड़ेबाजी में हाथ एक ही रह जाता है, इसलिए निष्कर्ष ऐसे निकलते हैं जो ठीक नहीं होते। ये स्वयं अफवाह और दहशत फैलाने और सांप्रदायिकता के विस्तार में सहायक होते हैं। एक में ‘हम खतरे में हैं’ का बोध जगा कर, दूसरे में ‘हमारी इतनी उदारता और सहनशीलता के बाद भी अगर हमें ही लांछन और उपेक्षा का शिकार होना है तो उदारता और सहनशीलता की जरूरत क्या है’ की झुंझलाहट पैदा करते हुए हम ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को तेज करते हैं। नासमझी भरी इस सदाशयता को, जिसमें एकपक्षीय तथ्य ही सामने आते हैं, हम लाठी से पीट कर आग बुझाने जैसा मानते हैं। मोटी समझ वाले के मुहावरे का व्यंग्यार्थ है कि आग पानी से बुझती है जिसका अनुवाद होगा ‘समस्या ठंढे दिमाग से सभी पक्षों और तथ्यों के कारक और प्रतिकारक पहलुओं पर विचार करते हुए उन जड़ों को उजागर करने और उनसे सचेत करने से ही हल हो सकती है।’
जिन लेखों और विश्लेषणों को हम पढ़ते हैं वे राजनीतिक तकाजों से लाभ-हानि का हिसाब लगाते हुए लिखे जाते हैं, इसलिए उनमें पक्षधरता भी होती है और पक्षधरता के अनुरूप अपर पक्ष के लिए व्यर्थता भी। इसे भजनमंडली के बीच का भजन कह सकते हैं। सांप्रदायिकता, अर्थात अपने संप्रदाय की हित-चिंता अच्छी बात है। यह अपनी व्यक्तिगत क्षुद्रता से आगे बढ़ने वाला पहला कदम है, इसके बिना मानवमात्र की हित-चिंता, जो अभी तक मात्र एक खयाल ही बना रह गया है, की ओर कदम नहीं बढ़ाए जा सकते। पहले कदम की कसौटी यह है कि वह दूसरे कदम के लिए रुकावट तो नहीं बन जाता। बृहत्तर सरोकारों से लघुतर सरोकारों का अनमेल पड़ना उन्हें संकीर्ण ही नहीं बनाता, अन्य हितों से टकराव की स्थिति में लाकर एक ऐसी पंगुता पैदा करता है जिसमें हमारी अपनी बाढ़ भी रुकती है और दूसरों की बाढ़ को रोकने में भी हम एक भूमिका पेश करने लगते हैं। धर्मों, संप्रदायों और यहां तक कि विचारधाराओं तक की सीमाएं यहीं से पैदा होती हैं, जो आरंभ मानवतावादी तकाजों से होते हैं और अमल में मानवद्रोही ही नहीं हो जाते बल्कि उस सीमित समाज का भी अहित करते हैं जिसके हित की चिंता को सर्वोपरि मान कर ये चलते हैं।
सामुदायिक हितों का टकराव वर्चस्वी हितों से होना अवश्यंभावी है। अवसर की कमी और अस्तित्व की रक्षा के चलते दूसरे वंचित या अभावग्रस्त समुदायों से भी टकराव और प्रतिस्पर्धा की स्थिति पैदा होती है। बाहरी एकरूपता के नीचे सभी समाजों में भीतरी दायरे में कई तरह के असंतोष बने रहते हैं और ये पहले से रहे हैं। संप्रदायों के भीतर भी संप्रदाय। भारतीय समाज का आर्थिक ताना-बाना ऐसा रहा है कि इसने सामाजिक अलगाव को विस्फोटक नहीं होने दिया और इसके चलते ही अभिजातीय सांप्रदायिक संगठनों- लीग, महासभा, संघ- को पहले कभी जन समर्थन नहीं मिला और सेक्युलर कहे जाने वाले संगठन के नौजवानों द्वारा समर्थन के बाद उसकी लोकप्रियता, आक्रामकता में बढ़त के साथ हिंदू संगठनों को अभिजातीय स्तर से नीचे उतर कर अपना फैलाव करने का अवसर मिला।
हाल के इतिहास में पूरा दक्षिण एशिया कई त्रासदियों से गुजरा है। इनको याद दिलाते रहना जख्म कुरेदने जैसा है। आप चुनावपूर्वक एक के जख्म को ताजा कर सकते हैं, पर अदृश्य रूप में कई जख्म दूसरों के भी ताजा होते रहते हैं। सांप्रदायिक बिलगाव का विस्तार सभी समुदायों में हुआ है। हिंदू सांप्रदायिकता डरावनी इसलिए लगती है कि इसका राजनीतिक लाभ केवल एक दल को मिल सकता है, जो अपने को हिंदू हितों का प्रतिनिधि बताता आया है और जिससे यह डर लगता है कि इसका लोकतंत्र भी धर्मतांत्रिकता के निकट पहुंच सकता है।
अन्यथा हिंदू कार्ड खेलने में कांग्रेस भी पीछे नहीं रही। यह दूसरी बात है कि उसने जल्द ही समझ लिया कि हिंदू समाज का चरित्र ऐसा है कि इसमें ध्रुवीकरण अगर हो भी तो अलक्ष्य रह जाती है और जिस अनुपात में यह संभव था उसका लाभ उसे नहीं, पहले से हिंदुत्व की राजनीति करने वालों को ही मिलेगा।
लाभ मिलता तो वह सेक्युलरिज्म के मुखौटे को उतार कर अपने नग्न रूप में सामने आ चुकी होती। 
समाज में सांप्रदायिकता के विस्तार में कांग्रेस की भूमिका जनसंघ, भाजपा और संघ से भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और मूर्खतापूर्ण रही है। राजनीतिक लाभ की खातिर अकाली दल को मात देने के लिए भिंडरांवाला जैसे अतिवादी को संत बनाना, सौ-पचास की संख्या में अनगिनत बार हिंदुओं को कतार में खड़ा करके एके-47 की बौछारों को बढ़ने का पर्यावरण तैयार करना और अंत में खुद ही   हरमिंदर साहब का कांड करना और उसकी प्रतिहिंसा में इंदिरा गांधी के मरने पर सिखों का पूरी पार्टी की अतिसक्रियता से उत्पीड़न और नरसंहार।
कांग्रेस के पदाधिकारियों और सांसदों का व्यवहार इतना सुसंचालित था कि इसे हिंदू समुदाय के आक्रोश का विस्फोट नहीं माना जा सकता। उन इलाकों के हिंदुओं ने आवेश में उन पर हमला नहीं कर दिया था। उपद्रवी झुंड बना कर बाहर से आए थे और मतदाता सूचियों से लैस होकर सिख घरों की पहचान कर रहे थे और उन सिखों के पड़ोसी कहीं तो उनका बचाव कर रहे थे और कहीं यह सोच कर उदासीन थे कि हिंदुओं का संहार तो सिखों ने भी हाल के दिनों में बार-बार किया है (यह भूल कर कि संहार करने वाले ये नहीं थे जिन पर संकट आ पड़ा है, इन्होंने उसका अनुमोदन तक नहीं किया, डरे-सहमे चुप रहे, क्योंकि विरोध करने वाले हिटलिस्ट में आ जाते थे, वे उतने ही डरे हुए थे जितने उन बौछारों के शिकार हिंदू), पर इसके बाद भी वे अपने पड़ोसी और अरक्षणीय सिख से न तो इतने असंतुष्ट थे कि उन पर स्वयं प्रहार करते। उनकी तटस्थता- जो हो रहा है होने दो- उपद्रवियों के पक्ष में जाती थी।
प्रकारांतर से वे निरीह या असद्धिअपराध लोगों को यों बहुत फासिस्ट चेहरा छिपाने के लिए फोकस एक दूसरे फासिस्ट चेहरे पर डाला जाता रहा है, जिसके कारनामे उतने अवसरवादी और अतार्किक नहीं रहे हैं जितने कांग्रेस के। अकेले कम्युनिस्ट पार्टियां अपने चरित्र में संप्रदायनिरपेक्ष रही हैं और इसके कारण अपने ही घटक दलों के द्वारा भड़काए गए दंगों को अधिक चुस्ती से नियंत्रित करने में भी सफल रही हैं।
पर अगर हिंदू समाज में भी, जो इतना सहिष्णु समाज रहा है कि असहिष्णु समुदाय उसकी सहिष्णुता को बकौल रुश्दी (देखें हंस, जून 2013 भी) सहिष्णुता का क्षरण हो रहा है, तो मानना होगा कि हिंदुओं ने अपने जिस अमृतकलश को दुर्दांत आक्रमणों और मध्यकालीन नरसंहारों को झेलते हुए भी कभी रिक्त न होने दिया, आज पहली बार अपने उस अमृतकोष बचाने में असमर्थ हो रहा है, जबकि ब्रह्मांडनाशी हथियारों के अंबार के बाद इसकी आवश्यकता विश्व के सभी समाजों और समुदायों में सबसे अधिक है। मगर इस विश्वरक्षक अमृत का बाजार भाव क्या है? अपमान? कायरता?
मध्यकाल तक में हिंदुओं को कभी किसी ने कायर नहीं समझा। मुगल सल्तनत पहले की सल्तनतों की तुलना में अधिक लंबे समय तक चल सकी कि इसने हिंदुओं के शौर्य का सम्मान भी किया और कूटनीतिक इस्तेमाल भी किया। हिंदू सच्चे वीर हैं; वे किसी निहत्थे, निरपराध, स्त्री, बालक और मत्त या सोए हुए पर, जो अपनी रक्षा न कर सकता हो उस पर, प्रहार नहीं करते और शरणागत अगर विधर्मी भी हो तो उसकी रक्षा के लिए अपना सर्वनाश तक करने का साहस रखते हैं, उनकी महिलाएं वीरांगनाएं हैं, ये प्रशस्तिपत्र हिंदुओं ने अपने लिए नहीं लिखे, किसी एक मुसलमान ने नहीं लिखे, बहुतों ने लिखे। वह आकलन सही हो या गलत, मध्यकाल तक धार्मिक अग्रधर्षिता और उत्पीड़न के बाद भी हिंदुओं को न तो कायर के रूप में प्रस्तुत किया गया, न ही इसका धार्मिक अलगाव से कोई संबंध है।
यह भावना बांटो और राज करो की जरूरत से अंग्रेजी कूटविदों ने मुसलमानों के बीच भरी, जिसके शिकार स्वयं सैयद अहमद खान हो गए। यह आज तक काम कर रही है, एक सिद्धांतिकी का हिस्सा बन चुकी है जिसका प्रभाव हिंदू समुदाय पर पड़े बिना नहीं रह सकता। इसकी अभिव्यक्ति हिंदू ही नहीं, हमारे मुहावरे के अल्पमत, और वस्तुत: प्रभावशाली बहुमत, के दबाव में वास्तविक अल्पमत- सिख, यहूदी, ईसाई, पारसी- के प्रति ही नहीं, बहुमत के प्रति भी जिस तरह के स्टीरियोटाइप तैयार किए जाते रहे उसने इप्टा के समय में और उसके बाद की विरासत में भी यथार्थ और आकांक्षित और वर्चस्ववादी यथार्थ के बीच दूरियों को बढ़ाया और केवल हिंदू नहीं, ये सभी समुदाय इसकी उपेक्षा करते हुए अपनी सहिष्णुता को चुपचाप प्रमाणित करते रहे, जबकि उनका न तो यथार्थ से संबंध था न औचित्य से।
आखिर अपराधों की दुनिया के आंकड़ों के विपरीत ऐसे चरित्रों का क्या औचित्य है, जो आदर्श के पुतले हों और उनका सही नाम बदल कर खान भाई कर दिया जाता हो। माफिया तंत्र को भाई तंत्र बना कर वहां धार्मिक पहचान पर परदा भी डाला जाता रहा। सांप्रदायिक विचलन का क्या इन विज्ञापित और वास्तविक यथार्थों के विरोध से कोई संबंध नहीं?