सांप्रदायिकता की हमारी समझ

 आए दिन समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में इस आशय के लेख आते रहते हैं कि सांप्रदायिकता का विस्तार हो रहा है, जिसका मतलब होता है हिंदू समाज में सांप्रदायिकता का विस्तार हो रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। अगर सांप्रदायिकता एक व्याधि है तो इससे सबसे अधिक क्षति हिंदू समाज को ही होनी है। पर इससे भी दुर्भाग्यपूर्ण है सांप्रदायिकता के विषय में यह प्रस्तुति, जो सभी संप्रदायों या समुदायों की उग्रता और अलगाव को बढ़ाती है और समस्या को समझने तक में बाधक बनती है। इसमें आम आदमी की मोटी समझ और समझदार आदमी की बारीक नासमझी का अंतर भी समझ में आता है। पहला इस समस्या को मुहावरों के सार से जानता है- ‘ताली एक हाथ से नहीं बजती’, या ‘आग लाठी से पीटने से नहीं बुझती’; दूसरा आंकड़ों के भरोसे।
मुहावरे में ताली बजाने वाला एक दूसरा हाथ जरूरी है, आंकड़ेबाजी में हाथ एक ही रह जाता है, इसलिए निष्कर्ष ऐसे निकलते हैं जो ठीक नहीं होते। ये स्वयं अफवाह और दहशत फैलाने और सांप्रदायिकता के विस्तार में सहायक होते हैं। एक में ‘हम खतरे में हैं’ का बोध जगा कर, दूसरे में ‘हमारी इतनी उदारता और सहनशीलता के बाद भी अगर हमें ही लांछन और उपेक्षा का शिकार होना है तो उदारता और सहनशीलता की जरूरत क्या है’ की झुंझलाहट पैदा करते हुए हम ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को तेज करते हैं। नासमझी भरी इस सदाशयता को, जिसमें एकपक्षीय तथ्य ही सामने आते हैं, हम लाठी से पीट कर आग बुझाने जैसा मानते हैं। मोटी समझ वाले के मुहावरे का व्यंग्यार्थ है कि आग पानी से बुझती है जिसका अनुवाद होगा ‘समस्या ठंढे दिमाग से सभी पक्षों और तथ्यों के कारक और प्रतिकारक पहलुओं पर विचार करते हुए उन जड़ों को उजागर करने और उनसे सचेत करने से ही हल हो सकती है।’
जिन लेखों और विश्लेषणों को हम पढ़ते हैं वे राजनीतिक तकाजों से लाभ-हानि का हिसाब लगाते हुए लिखे जाते हैं, इसलिए उनमें पक्षधरता भी होती है और पक्षधरता के अनुरूप अपर पक्ष के लिए व्यर्थता भी। इसे भजनमंडली के बीच का भजन कह सकते हैं। सांप्रदायिकता, अर्थात अपने संप्रदाय की हित-चिंता अच्छी बात है। यह अपनी व्यक्तिगत क्षुद्रता से आगे बढ़ने वाला पहला कदम है, इसके बिना मानवमात्र की हित-चिंता, जो अभी तक मात्र एक खयाल ही बना रह गया है, की ओर कदम नहीं बढ़ाए जा सकते। पहले कदम की कसौटी यह है कि वह दूसरे कदम के लिए रुकावट तो नहीं बन जाता। बृहत्तर सरोकारों से लघुतर सरोकारों का अनमेल पड़ना उन्हें संकीर्ण ही नहीं बनाता, अन्य हितों से टकराव की स्थिति में लाकर एक ऐसी पंगुता पैदा करता है जिसमें हमारी अपनी बाढ़ भी रुकती है और दूसरों की बाढ़ को रोकने में भी हम एक भूमिका पेश करने लगते हैं। धर्मों, संप्रदायों और यहां तक कि विचारधाराओं तक की सीमाएं यहीं से पैदा होती हैं, जो आरंभ मानवतावादी तकाजों से होते हैं और अमल में मानवद्रोही ही नहीं हो जाते बल्कि उस सीमित समाज का भी अहित करते हैं जिसके हित की चिंता को सर्वोपरि मान कर ये चलते हैं।
सामुदायिक हितों का टकराव वर्चस्वी हितों से होना अवश्यंभावी है। अवसर की कमी और अस्तित्व की रक्षा के चलते दूसरे वंचित या अभावग्रस्त समुदायों से भी टकराव और प्रतिस्पर्धा की स्थिति पैदा होती है। बाहरी एकरूपता के नीचे सभी समाजों में भीतरी दायरे में कई तरह के असंतोष बने रहते हैं और ये पहले से रहे हैं। संप्रदायों के भीतर भी संप्रदाय। भारतीय समाज का आर्थिक ताना-बाना ऐसा रहा है कि इसने सामाजिक अलगाव को विस्फोटक नहीं होने दिया और इसके चलते ही अभिजातीय सांप्रदायिक संगठनों- लीग, महासभा, संघ- को पहले कभी जन समर्थन नहीं मिला और सेक्युलर कहे जाने वाले संगठन के नौजवानों द्वारा समर्थन के बाद उसकी लोकप्रियता, आक्रामकता में बढ़त के साथ हिंदू संगठनों को अभिजातीय स्तर से नीचे उतर कर अपना फैलाव करने का अवसर मिला।
हाल के इतिहास में पूरा दक्षिण एशिया कई त्रासदियों से गुजरा है। इनको याद दिलाते रहना जख्म कुरेदने जैसा है। आप चुनावपूर्वक एक के जख्म को ताजा कर सकते हैं, पर अदृश्य रूप में कई जख्म दूसरों के भी ताजा होते रहते हैं। सांप्रदायिक बिलगाव का विस्तार सभी समुदायों में हुआ है। हिंदू सांप्रदायिकता डरावनी इसलिए लगती है कि इसका राजनीतिक लाभ केवल एक दल को मिल सकता है, जो अपने को हिंदू हितों का प्रतिनिधि बताता आया है और जिससे यह डर लगता है कि इसका लोकतंत्र भी धर्मतांत्रिकता के निकट पहुंच सकता है।
अन्यथा हिंदू कार्ड खेलने में कांग्रेस भी पीछे नहीं रही। यह दूसरी बात है कि उसने जल्द ही समझ लिया कि हिंदू समाज का चरित्र ऐसा है कि इसमें ध्रुवीकरण अगर हो भी तो अलक्ष्य रह जाती है और जिस अनुपात में यह संभव था उसका लाभ उसे नहीं, पहले से हिंदुत्व की राजनीति करने वालों को ही मिलेगा।
लाभ मिलता तो वह सेक्युलरिज्म के मुखौटे को उतार कर अपने नग्न रूप में सामने आ चुकी होती। 
समाज में सांप्रदायिकता के विस्तार में कांग्रेस की भूमिका जनसंघ, भाजपा और संघ से भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और मूर्खतापूर्ण रही है। राजनीतिक लाभ की खातिर अकाली दल को मात देने के लिए भिंडरांवाला जैसे अतिवादी को संत बनाना, सौ-पचास की संख्या में अनगिनत बार हिंदुओं को कतार में खड़ा करके एके-47 की बौछारों को बढ़ने का पर्यावरण तैयार करना और अंत में खुद ही   हरमिंदर साहब का कांड करना और उसकी प्रतिहिंसा में इंदिरा गांधी के मरने पर सिखों का पूरी पार्टी की अतिसक्रियता से उत्पीड़न और नरसंहार।
कांग्रेस के पदाधिकारियों और सांसदों का व्यवहार इतना सुसंचालित था कि इसे हिंदू समुदाय के आक्रोश का विस्फोट नहीं माना जा सकता। उन इलाकों के हिंदुओं ने आवेश में उन पर हमला नहीं कर दिया था। उपद्रवी झुंड बना कर बाहर से आए थे और मतदाता सूचियों से लैस होकर सिख घरों की पहचान कर रहे थे और उन सिखों के पड़ोसी कहीं तो उनका बचाव कर रहे थे और कहीं यह सोच कर उदासीन थे कि हिंदुओं का संहार तो सिखों ने भी हाल के दिनों में बार-बार किया है (यह भूल कर कि संहार करने वाले ये नहीं थे जिन पर संकट आ पड़ा है, इन्होंने उसका अनुमोदन तक नहीं किया, डरे-सहमे चुप रहे, क्योंकि विरोध करने वाले हिटलिस्ट में आ जाते थे, वे उतने ही डरे हुए थे जितने उन बौछारों के शिकार हिंदू), पर इसके बाद भी वे अपने पड़ोसी और अरक्षणीय सिख से न तो इतने असंतुष्ट थे कि उन पर स्वयं प्रहार करते। उनकी तटस्थता- जो हो रहा है होने दो- उपद्रवियों के पक्ष में जाती थी।
प्रकारांतर से वे निरीह या असद्धिअपराध लोगों को यों बहुत फासिस्ट चेहरा छिपाने के लिए फोकस एक दूसरे फासिस्ट चेहरे पर डाला जाता रहा है, जिसके कारनामे उतने अवसरवादी और अतार्किक नहीं रहे हैं जितने कांग्रेस के। अकेले कम्युनिस्ट पार्टियां अपने चरित्र में संप्रदायनिरपेक्ष रही हैं और इसके कारण अपने ही घटक दलों के द्वारा भड़काए गए दंगों को अधिक चुस्ती से नियंत्रित करने में भी सफल रही हैं।
पर अगर हिंदू समाज में भी, जो इतना सहिष्णु समाज रहा है कि असहिष्णु समुदाय उसकी सहिष्णुता को बकौल रुश्दी (देखें हंस, जून 2013 भी) सहिष्णुता का क्षरण हो रहा है, तो मानना होगा कि हिंदुओं ने अपने जिस अमृतकलश को दुर्दांत आक्रमणों और मध्यकालीन नरसंहारों को झेलते हुए भी कभी रिक्त न होने दिया, आज पहली बार अपने उस अमृतकोष बचाने में असमर्थ हो रहा है, जबकि ब्रह्मांडनाशी हथियारों के अंबार के बाद इसकी आवश्यकता विश्व के सभी समाजों और समुदायों में सबसे अधिक है। मगर इस विश्वरक्षक अमृत का बाजार भाव क्या है? अपमान? कायरता?
मध्यकाल तक में हिंदुओं को कभी किसी ने कायर नहीं समझा। मुगल सल्तनत पहले की सल्तनतों की तुलना में अधिक लंबे समय तक चल सकी कि इसने हिंदुओं के शौर्य का सम्मान भी किया और कूटनीतिक इस्तेमाल भी किया। हिंदू सच्चे वीर हैं; वे किसी निहत्थे, निरपराध, स्त्री, बालक और मत्त या सोए हुए पर, जो अपनी रक्षा न कर सकता हो उस पर, प्रहार नहीं करते और शरणागत अगर विधर्मी भी हो तो उसकी रक्षा के लिए अपना सर्वनाश तक करने का साहस रखते हैं, उनकी महिलाएं वीरांगनाएं हैं, ये प्रशस्तिपत्र हिंदुओं ने अपने लिए नहीं लिखे, किसी एक मुसलमान ने नहीं लिखे, बहुतों ने लिखे। वह आकलन सही हो या गलत, मध्यकाल तक धार्मिक अग्रधर्षिता और उत्पीड़न के बाद भी हिंदुओं को न तो कायर के रूप में प्रस्तुत किया गया, न ही इसका धार्मिक अलगाव से कोई संबंध है।
यह भावना बांटो और राज करो की जरूरत से अंग्रेजी कूटविदों ने मुसलमानों के बीच भरी, जिसके शिकार स्वयं सैयद अहमद खान हो गए। यह आज तक काम कर रही है, एक सिद्धांतिकी का हिस्सा बन चुकी है जिसका प्रभाव हिंदू समुदाय पर पड़े बिना नहीं रह सकता। इसकी अभिव्यक्ति हिंदू ही नहीं, हमारे मुहावरे के अल्पमत, और वस्तुत: प्रभावशाली बहुमत, के दबाव में वास्तविक अल्पमत- सिख, यहूदी, ईसाई, पारसी- के प्रति ही नहीं, बहुमत के प्रति भी जिस तरह के स्टीरियोटाइप तैयार किए जाते रहे उसने इप्टा के समय में और उसके बाद की विरासत में भी यथार्थ और आकांक्षित और वर्चस्ववादी यथार्थ के बीच दूरियों को बढ़ाया और केवल हिंदू नहीं, ये सभी समुदाय इसकी उपेक्षा करते हुए अपनी सहिष्णुता को चुपचाप प्रमाणित करते रहे, जबकि उनका न तो यथार्थ से संबंध था न औचित्य से।
आखिर अपराधों की दुनिया के आंकड़ों के विपरीत ऐसे चरित्रों का क्या औचित्य है, जो आदर्श के पुतले हों और उनका सही नाम बदल कर खान भाई कर दिया जाता हो। माफिया तंत्र को भाई तंत्र बना कर वहां धार्मिक पहचान पर परदा भी डाला जाता रहा। सांप्रदायिक विचलन का क्या इन विज्ञापित और वास्तविक यथार्थों के विरोध से कोई संबंध नहीं?