ओ मेरे तरुण साथियों, उठो, जागो

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।। सुभाषचंद्र बोस ।।
नेताजी जयंती आज : हमारे लिए एक अखंड सत्य है मानव-जीवन

आज देश में ऐसे नेता नहीं दिखते, जिसके पास महान और उदात्त सपना हो, जिसे भारत के युवा अपनी आंखों में पाल सकें. सपनाविहीन देश बन गया है भारत. राजनीतिक दलों के लिए उनकी अहमियत सिर्फ वोट लेने तक है.
युवाओं में आशा, उत्साह, त्याग और पुरुषार्थ की भावना जगा सकें, ऐसे नेता कहां हैं?आज नेताजी सुभाषचंद्र बोस की जयंती है. इस अवसर पर पढ़िए नेताजी का आह्वान, जो उन्होंने युवाओं से वर्षो पहले किया था.
हम इस संसार में किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए, किसी संदेश को प्रचारित करने के लिए जन्म ग्रहण करते हैं. जगत को ज्योति प्रदान करने के लिए आकाश में यदि सूर्य उदित होता है, वन प्रदेश में सौरभ बिखेरने को यदि दालों में फूल खिलते हैं और अमृत बरसाने को नदियां यदि समुद्र की ओर बह चलती हैं तो हम भी यौवन का परिपूर्ण आनंद और प्राणों का उत्साह लेकर मृत्युलोक में किसी सत्य की प्रतिष्ठा के लिए आये हैं.
जो अज्ञात एवं महती उद्देश्य हमारे व्यर्थतापूर्ण जीवन को सार्थक बनाता है, उसे चिंतन एवं जीवन-अनुभव द्वारा पाना होगा. सभी को आनंद का आस्वाद कराने के लिए हम यौवन के पूर्ण ज्वार में तैरते आये हैं. कारण, हम आनंद स्वरूप हैं. आनंदमय मूर्त विग्रह के रूप में इस मर्त्य में हम विचरण करेंगे. अपने आनंद में हम हंसेंगे-साथ ही जगत को भी मतवाला बनायेंगे.
जिधर हम विचरेंगे उधर निरानंद का अंधकार लज्जा से दूर हट जायेगा. हमारे स्फूर्त स्पर्श के प्रभाव-मात्र से रोग, शोक, ताप दूर होंगे. इस कष्टमय, पीड़ापूर्ण नरकधाम में हम आनंद-सागर के ज्वार को खींच लायेंगे.
आशा, उत्साह, त्याग और पुरु षार्थ हममें है. हम सृष्टि करने आये हैं. क्योंकि सृष्टि में ही आनंद है. तन, मन, बुद्धिबल से हमें सृष्टि करनी है. जो अंतर्निहित सत्य है, जो सुंदर है, जो शिव है- उसे सृष्टि पदार्थो में हम प्रस्फुटित करेंगे. आत्मदान में जो आनंद है, उस आनंद में हम खो जायेंगे. उस आनंद का अनुभव कर पृथ्वी भी धन्य हो उठेगी. फिर भी हमारे देय का अंत नहीं है, कर्म का भी अंत नहीं हैं है, क्योंकि.....
 जतो देबो प्राण बहे जाबे प्राण
  फुराबे ना आर प्राण;
  एतो कथा आछे, एतो गान आछे
  एतो प्राण आछे मोर;
  एतो सुख आछे, एतो साध आछे
  प्राण हए आछे मोर.
अनंत आशा, असीम उत्साह: अपरिमित तेज और अदम्य साहस लेकर हम आये हैं, इसलिए हमारे जीवन का श्रोत कोई नहीं रोक पायेगा. अविश्वास और नैराश्य का विशाल पर्वत ही क्यों न सम्मुख खड़ा हो अथवा समवेत मानवजाति की प्रतिकूल शक्तियों का आक्र मण ही क्यों न हो, हमारी आनंदमयी गति चिर अक्षुण्ण रहेगी.
हमलोगों का एक विशिष्ट धर्म है, उसी धर्म के हम अनुयायी हैं. जो नया है, जो सरस है, जो अनास्वादित है, उसी के हम उपासक हैं. प्राचीन में नवीनता को, जड़ में चेतना को, प्रौढ़ों में तरुण को और बंधन के बीच असीम को हम ला बैठाते हैं.
हम अतीत इतिहास-लब्ध ज्ञान को हमेशा मानने को तैयार नहीं हैं. हम अनंत पथ के यात्री अवश्य हैं, किंतु हमें अजाना पथ ही भाता है- अजाना भविष्य ही हमें प्रिय है. हम चाहते हैं-  ‘द राइट टु मेक ब्लंडर्स’  अर्थात  भूल करने का अधिकार.  तभी तो हमारे स्वभाव के प्रति सभी सहानुभूतिशील नहीं होते. हम बहुतों के लिए रचना-शून्य और श्रीविहीन हैं.
यही हमारा आनंद और यही हमारा गर्व है. तरु ण अपने समय में सभी देशों में रचना-शून्य रहा और श्रीविहीन रहा है. अतृप्त आकांक्षा के उन्माद में हम भटकते हैं, विज्ञों के उपदेश सुनने तक का समय हमारे पास नहीं होता.
भूल करते हैं, भ्रम में पड़ते हैं, फिसलते हैं, किंतु किसी प्रकार भी हमारा उत्साह घटता नहीं और न हम पीछे हटते हैं. हमारी तांडव-लीला का अंत नहीं है, क्योंकि हम अविराम-गति हैं.
हम ही देश-विदेश के मुक्ति-इतिहास की रचना करते हैं. हम यहां शांति का गंगाजल छिड़कने नहीं आते. हम आते हैं द्वंद्व उत्पन्न करने, संग्राम का आभास देने, प्रलय की सूचना देने. जहां बंधन है, जहां जड़ता है, जहां कुसंस्कार है, जहां संकीर्णता है, वहीं हमारा प्रहार होता है. हमारा एकमात्र काम है मुक्तिमार्ग को हर क्षण कंटक शून्य बनाये रखना, जिससे उस पथ पर मुक्ति-सेनाएं अबाधित आवागमन कर सकें.
मानव-जीवन हमारे लिए एक अखंड सत्य है. अत: जो स्वाधीनता हम चाहते हैं- उस स्वाधीनता को पाने के लिए युगों-युगों से हम खून बहाते आते हैं- वह स्वाधीनता हमारे लिए सर्वोपरि है. जीवन के सभी क्षेत्रों में, सभी दिशाओं में हम मुक्ति-संदेश प्रचारित करने को जन्मे हैं, चाहे समाजनीति हो, चाहे अर्थनीति, चाहे राष्ट्रनीति या धर्मनीति- जीवन के सभी क्षेत्रों में हम सत्य का प्रकाश, आनंद का उच्छ्वास और उदारता का मौलिक आधार लेकर आते रहे हैं.
अनादिकाल से हम मुक्ति का संगीत गुंजाते आये हैं. बचपन से मुक्ति की आकांक्षा हमारी नसों में प्रवाहित है. जन्म लेते ही हम जिस कातर कंठ से रो पड़ते हैं, वह मात्र पार्थिव बंधन के विरु द्ध विद्रोह का ही एक स्वर है. बचपन में रोना ही एकमात्र सहारा है. किंतु यौवन की देहरी पर कदम रखते ही बाहु और बुद्धि का सहारा हमें मिलता है. और इसी बुद्धि और बाहु की सहायता से हमने क्या नहीं किया-फिनीशिया, असीरिया, बेबीलोनिया, मिस्र, ग्रीस, रोम, तुर्की, इंगलैंड, फ्रांस, जर्मनी, रूस, चीन, जापान, हिंदुस्तान-जिस-किसी देश के इतिहास के पृष्ठों में हमारी कीर्ति जाज्वल्यमान है.
हमारे सहयोग से सम्राट सिंहासनासीन होता है और हमारे इशारे पर वह सभय सिंहासन से उतार दिया जाता है. हमने एक तरफ पत्थर-अभिभूत प्रेमाश्रु रूपी ताजमहल का जैसे निर्माण किया है, वैसे ही दूसरी तरफ रक्त- स्नेत से धरती की प्यास बुझायी है.
हमारी सामूहिक क्षमता से ही समाज, राष्ट्र, साहित्य, कला, विज्ञान युग-युगों में देश-देश में विकसित होता रहा है. और रुद्र कराल रूप धारण कर हमने जब तांडव आरंभ किया, तब उसी तांडव के मात्र एक पद-निक्षेप से कितने ही समाज, कितने ही साम्राज्य धूल में मिल गये.
इतने दिनों के बाद अपनी शक्ति का अहसास हमें हुआ है, अपने कर्म का ज्ञान हमें हुआ है. अब हमारे ऊपर शासन और हमारा शोषण भला कौन करे? इस नवजागरण बेला में सबसे महती सत्य है- तरुणों की आत्म-प्रतिष्ठा की प्राप्ति. तरुणों की सोयी आत्मा जब जाग गयी है तब जीवन के चतुर्दिक सभी स्थलों में यौवन का रक्तिम राग पुन: दिख उठेगा.
यह जो युवकों का आंदोलन है- यह जैसे सर्वतोमुखी है, वैसे ही विश्वव्यापी भी. आज संसार के सभी देशों में, विशेषत: जहां बुढ़ापे की शीतल छाया नजर अति है, युवा संप्रदाय सर उठाकर प्रकृतिस्थ हो सदर्प मुहिम पर है. किस दिव्य आलोक से पृथ्वी को ये उदभासित करेंगे, कौन जाने? ओ मेरे तरु ण साथियों, उठो, जागो, उषा की किरण वह वहां फैल रही है.