सैफई महोत्सव के आधे खर्च में छत पा जाता हर दंगा पीड़ित






सैफई महोत्सव के आधे खर्च में छत पा जाता हर दंगा पीड़ित







समाजवाद को लेकर अलग ही सूबे की सरकार की अलग ही परिभाषा है। मुजफ्फरनगर के दंगा पीड़ितों को लेकर सरकार पर सवाल उठे तो भीषण ठंड के बाद भी शिविर उजाड़ दिए गए। और दूसरी ओर सरकार के 'घर' सैफई में महोत्सव के बहाने हुए जश्न के नाम पर सैकड़ों करोड़ बहा दिए गए। पीड़ितों के आंसू पोंछने के लिए अगर सरकार महोत्सव का खर्च बचा लेती तो उसके आधे में ही हर एक दंगा पीड़ित को छत नसीब हो जाती।
मुजफ्फरनगर दंगों में बेघर हुए 58 हजार लोगों की शिविरों में हो रही दुर्दशा और ठंड से मासूमों की होती मौतों पर सवाल खड़े हुए तो समाजवादी सरकार जख्मों पर मलहम लगाने के बजाय विवाद की जड़ में ही मट्ठा डालने में लग गई। मुजफ्फरनगर के 41 और शामली के 17 शिविरों को खाली कर देने का फरमान जारी हो गया। आला अफसर भी लाठी के बूते शिविर खाली कराने में जुट गए। समाजवादियों को ये भी ख्याल नहीं आया कि भीषण ठंड में पीड़ितों का होगा क्या।
सरकार की ऊर्जा विपक्षी पार्टियों की जुबान बंद करने में ज्यादा खर्च हुई, जबकि दरियादिली दिखाकर सरकार ने सैफई महोत्सव के नाम पर हुए खर्च को ही बचा लिया होता तो न सिर्फ सभी दंगा पीड़ितों को छत मिल जाती बल्कि सूबे के सभी महानगरों में असहायों के लिए ठंड में सिर छिपाने के वास्ते कई रैन बसेरों का भी इंतजाम हो जाता।
सरकार की ही लोहिया आवास योजना में लाभार्थी को आवास के लिए एक लाख 35 हजार देने का प्रावधान है, 15 हजार का योगदान लाभार्थी नकद या फिर अपने ही आवास के लिए मजदूरी करके कर सकता है। अब अगर एक परिवार में पांच लोगों को ही मान लिया जाए तो सभी पीड़ित परिवारों के लिए 11 हजार 600 आवास बनाने की जरूरत पड़ती। सभी परिवारों को लोहिया आवास ही बन जाता तो भी सरकार को 156 करोड़ 60 लाख रुपये ही खर्च करने पड़ते।
महोत्सव में खर्च हुए करीब 300 करोड़ में 147 करोड़ 40 लाख फिर भी बच जाते। बची हुई रकम से प्रदेश भर के सभी 13 नगर निगमों में हर एक को 11 करोड़ से ज्यादा की रकम रैन बसेरे बनाने के लिए मिल सकते थे, जिससे कि वहां रोजी रोटी की तलाश में पहुंचने वाले कामगारों को सर्द रात में सिर छिपाने का इंतजाम हो जाता।