शिक्षा का अधिकार कानून संवैधानिक - सुप्रीम कोर्ट


की संवैधानिकता को वैध ठहराया। इस कानून के तहत सभी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिये 25 फीसदी सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है।प्रधान न्यायाधीश आर एम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इस कानून को संवैधानिक घोषित करते हुये कहा कि यह सहायता प्राप्त या गैरसहायता  अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं होगा।संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति ए के पटनायक, न्यायमूर्ति एस जे मुखोपाध्याय, न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति एफएमआई कलीफुल्ला शामिल हैं। संविधान पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 21(क) संविधान के बुनियादी ढांचे को प्रभावित नहीं करता है। शिक्षा का अधिकार कानून से जुड़ा यह मसला 23 अगस्त, 2013 को न्यायाधीशों की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सौंपा था क्योंकि इसमें गैर सहायता वाले निजी शिक्षण संस्थानों के अधिकारों से संबंधित महत्वपूर्ण संवैधानिक मसला उठाया गया था। अप्रैल, 2013 से पहले शीर्ष अदालत के दो न्यायाधीश की पीठ ने यह मामला तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ को सौंपा था।350 से अधिक निजी गैरसहायता वाले स्कूलों के संगठन फेडरेशन ऑफ पब्लिक स्कूल्स की दलील थी कि यह कानून सरकार के हस्तक्षेप के बगैर ही उनके स्कूल संचालन के अधिकार का हनन करता है।याचिका में यह भी दलील दी गयी थी कि हालांकि 2012 में तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने इस कानून को वैध ठहराया था लेकिन इसमे त्रुटि रह गई थी क्योंकि न्यायालय ने संविधान पीठ की पहले की इन दो व्यवस्थाओं पर गौर नहीं किया था कि सरकार निजी संस्थाओं के मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। इस संगठन के वकील का कहना था कि पहले की व्यवस्थाओं में कहा गया था कि इस तरह के हस्तक्षेप से संविधान के अनुचछेद 14, 15 (1), 19 (1) और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा।संसद ने 2009 में संविधान में अनुच्छेद 21-क को शामिल करके शिक्षा का अधिकार कानून पारित किया था। इसके तहत 6 से 14 साल के बच्चों के लिये अनिवार्य रूप से मुफ्त शिक्षा का प्रावधान किया गया था। याचिकाकर्ता का कहना था कि 2012 में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने त्रुटिवश गैरअल्पसंख्यक गैरसहायता वाली शिक्षण संस्थाओं के लिये अनुच्छेद 21-क को वैध ठहराया था जबकि अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित शिक्षा संस्थाओं के संदर्भ में इसे असंवैधानिक ठहराया था।(भाषा)